आखिर सच साबित हो गई गिर्दा की गैरसैंण के जीआईसी में राज्य की विधान सभा की कल्पना


  • आखिर सच साबित हो गई गिर्दा की जीआईसी में राज्य की विधान सभा की कल्पना
  • प्रदेश के जनकवि गिरीश तिवारी ने 24 अगस्त 2010 को बांटा था यह विचार
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कहते हैं महान लोग स्वप्नदृष्टा होते हैं। इसीलिए उनके विचार कालजयी होते हैं, और उनके जाने के लंबे समय बाद भी प्रासंगिक रहते हैं, और इसलिए याद भी किए जाते हैं। गैरसैंण में उत्तराखंड की राजधानी होने के राज्य आंदोलनकारियों के ख्वाबों की ताबीर में शायद अभी वक्त लगे, लेकिन रविवार आठ जून 2014 की शाम गैरसैंण के स्थानीय राजकीय इंटर कालेज के प्रांगण में शुरू होने वाली विधान सभा की बैठक भी किसी सपने के सच साबित होने से कम नहीं है। उत्तराखंड के जनकवि कहे जाने वाले स्वर्गीय गिर्दा ठीक यही सपना देखते रहे थे। अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व 24 अगस्त 2010 को उन्होंने मुझसे यह विचार साझा किया था कि राज्य की विधानसभा गैरसैंण के राजकीय इंटर कालेज में स्थापित होगी।

[/pullquote] नवीन जोशी, नैनीताल। सामान्यतया गैरसैंण में राजधानी स्थापित कराने वाले राजनेता अपने समर्थकों को इसकी उपयोगिता नहीं समझा पाते हैं। यही कारण रहा कि राजनीतिक तौर पर गैरसेंण का विचार कभी वोटों में तब्दील नहीं हो पाया। लेकिन दार्शनिक व पहाड़ी अंदाज में गिर्दा ने अपनी रौ में कहा था-हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, ’हाई स्कूल या इंटर कालेज‘ के कमरे जितनी काले पाथर के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी ही विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा टीचरों जैसे मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास। पहाड़ पर राजधानी बनाने का एक लाभ यह भी होता कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पाते, और आ जाते तो भ्रष्टाचार, चोरी कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे़ जाते। लेकिन इसके साथ ही गिर्दा अपने ठेठ पहाड़ी अंदाज में यह भी कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही ‘रौकात’ करनी हो तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ। यह कहते हुए वह खास तौर पर कविता के अंदाज में ‘औकात’ और ‘रौकात’ शब्दों पर खास जोर भी देते थे।

बकौल गिर्दा यह थी अपने राज्य की अवधारणा जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था कि हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा। यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारणा पर कार्य करना होगा। वह कहते थे-हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसरों को ले कर आयें। हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व एसी ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी ‘हरा’ रखे। हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना ‘घर’ भी संवारे व सजाये। हमारे जंगल पूरे एशिया को ‘प्राणवायु’ देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए ‘बांसे’, हल, दनेला, जुआ बनाने के तो काम आयें। हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम आयें। हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी ‘संजीवनी बूटी’ सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे। हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे जा पायेंगे।

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