बेमौसम के कफुवा, प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में


Buransh2भवाली के निकट श्याम खेत के जंगलों में खिला बसंत ऋतु का प्रतीक राज्य वृक्ष बुरांश, आगे बसंत रह सकता है फूलों के बिना

नवीन जोशी, नैनीताल। ‘…वारा डाना, पारा डाना, कफुवा फुली रै, मैं कैहुं टिपूं फूला मेरि हंसि रिसै रै” पहाड़ी जंगलों में पशु चारण करते हुऐ यह गीत गाते ग्वाल बालों द्वारा आम तौर पर बसंत के मौसम में फूलदेई (पहाड़ का एक त्योहार) के करीब गाया जाने वाला यह गीत प्रतीक होता है कि कफुवा यानी राज्य वृक्ष बुरांश खिलकर ऋतुराज वसंत के आने का संदेश दे रहा है। Pyonliफूलदेई पर नन्हे बच्चों द्वारा गांवों में द्वार पूजा के दौरान बुरांश के साथ साथ इसी दौरान खिलने वाले दूसरे नन्हे प्यारे पीले रंग के ‘प्योंली’ (गढ़वाल में फ्योंली शब्द प्रयोग किया जाता है) भी प्रयोग किये जाते हैं। लेकिन इधर सरोवरनगरी के पास बुरांश और प्योंली के फूल जनवरी के पहले पखवाड़े यानी बसंत ऋतु में ही खिल आए हैं। इससे पर्यावरण प्रेमी चिंतित हैं कि समय से पूर्व इन फूलों का खिलना किसी खतरे अथवा बड़े मौसमी परिवर्तन का संकेत तो नहीं, जबकि बच्चे भी चिंताग्रस्त हैं कि कहीं फूलदेई पर, जब उन्हें इन फूलों की जरूरत होगी, तब उन्हें यह प्राप्त होंगे या नहीं। वनस्पति विज्ञानी भी इस बारे में शंशय में हैं।

वनस्पति विज्ञानियों के अनुसार सामान्यतया किसी भी फूल के खिलने एवं कोपलों के फूटने के लिए पहले ठंड और फिर गर्मी की जरूरत होती है। ऐसा अनुकूल समय सामान्यतया ऋतुराज वसंत में होता है। वसंत से पूर्व शरद ऋतु में अधिक ठंड पड़ने पर पौधे एवं पेड़ अपने जीवंतता के गुण के मुताबिक एक ओर स्वयं का तापमान से साम्य बैठाते हुऐ अपनी शक्ति भीतर संग्रहीत कर लेते हैं। इस दौर में पत्तियों और फूलों की कोपलें (बट्स) बनने लगती हैं और वसंत आने पर फरवरी मार्च में तापमान बढ़ने पर कोपलें फूटना शुरू होती हैं। लेकिन इधर पहाड़ों पर दिखाई दे रहे मौसमीय परिवर्तनों के सर्वाधिक असर के बीच जनवरी माह में धूप खिलने पर फरवरी-मार्च या अप्रैल की तरह का तापमान होने लगा है। 2010 में 25 दिसंबर को सरोवरनगरी में गर्मियों की तरह 24.5 डिग्री का स्तर छू लिया था। जबकि इस वर्ष दशकों बाद दिसंबर के पहले पखवाड़े में बर्फवारी होने के बाद से मैदानों में छाई धुंध और कड़ाके की ठंड से इतर दिन का तापमान औसतन 14 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर बना हुआ था। इसलिए दिसंबर पहले पखवाड़े की बर्फीली ठंड के बाद से ठीक-ठाक धूप खिलने से बुरांश व प्योंली के फूल खिल आए हैं। सर्वप्रथम भवाली के पास श्यामखेत से ऊपर के जंगल में नगर पालिका रेंज के वन क्षेत्राधिकारी कैलाश चंद्र सुयाल और नगर के दीपक बिष्ट ने बुरांश के खिले फूलों को रिकार्ड किया है। वहीं नगर के निकट हनुमानगढ़ी, एरीज के जंगलों में प्योंली फूल काफी मात्रा में खिला नजर आ रहा है। लेकिन इसमें इससे बड़ी चिंता यह छुपी हुई है कि इस बार वसंत में फूल क्या उपलब्ध होंगे, जबकि वह पहले ही खिल चुके होंगे। श्री सुयाल ने श्यामखेत में ही सर्वाधिक भवन निर्माण व आवासीय क्षेत्र बनने की ओर इशारा करते हुए आशंका जताई है कि कहीं इसी कारण तो उस क्षेत्र में सबसे पहले बुरांश नहीं खिला है।

ग्लोबलवार्मिंग के प्रभावों पर स्थिति अभी स्पष्ट नहीं

नैनीताल। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा है। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी है। कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर में वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रो. ललित तिवारी ने फूलों के खिलने की प्रक्रिया समझाते हुए कहा कि सामान्यतया पहाड़ पर यह फूल फरवरी-मार्च में फूलदेई के आसपास खिलते हैं। यह वह समय होता है जब इनके पेड़ों को ठंड के बाद कुछ लंबे समय तक गर्मी मिलती है। ऐसा मौसम उन्हें जब भी मिल जाता है, वह खिल जाता है।  न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। अपने विभाग के शोध छात्रों द्वारा किए गए अध्ययन के आधार पर कहा कि अभी इसे ग्लोबलवार्मिंग से जोड़ना जल्दबाजी होगी। वर्ष 2008 व 2010 के बीच बुरांश में निर्धारित से करीब 26 दिन पहले फूल खिल गए थे, लेकिन 2012-13 में यह वापस अपने समय से ही खिले। इस वर्ष फिर जल्दी फूल खिल रहे हैं। उन्होंने इस विषय में गहन और विस्तृत, वृहद एवं विषय केंद्रित शोध किए जाने की आवश्यकता भी जताई।

बहुगुणी है बुरांश

बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

हिंदी के छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत की अपनी मातृभाषा कुमाउंनी में लिखी एकमात्र कविता बुरांश पर

राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है-
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।)

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बुरांश की और फोटो : 

कुमाऊं में ‘श्री पंचमी’, ‘सिर पंचमी’ व ‘जौं पंचमी’ के रूप में मनायी जाती है बसंत पंचमी

नैनीताल। कुमाऊं मंडल के पर्वतीय अंचलों में ऋतुराज बसंत के आगमन का पर्व ‘बसंत पंचमी” माघ माह के शुक्ल कक्ष की पंचमी की तिथि को परंपरागत तौर पर ‘श्री पंचमी’ के रूप में मनाया जाता है। इसे यहां सिर पंचमी या जौं पंचमी कहने की भी परंपरा है। बसंत ऋतु के आगमन पर नये पीले वस्त्र धारण करने की परंपरा है। कोई पीला वस्त्र न हो तो पीले रंग के रुमाल जरूर रखे जाते हैं। साथ ही घरों व मंदिरों में खास तौर पर विद्या की देवी माता सरस्वती की विशेष पूजन-अर्चना की जाती है। इस दिन लोग खेतों से विधि-विधान के साथ जौ के पौधों को उखाड़कर घर में लाते हैं, और मिट्टी एवं गाय के गोबर का गारा बनाकर इससे जौं के तिनकों को अपने घरों की चौखटों पर चिपकाते हैं, साथ ही परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जौ के तिनकों को हरेले की तरह चढ़ाते हुये आशीष दी जाती हैं। घरों में अनेक तरह के परंपरागत पकवान भी बनते हैं। इस दिन छोटे बच्चों को विद्यारंभ एवं बड़े बच्चों का यज्ञोपवीत संस्कार भी कराया जाता है, तथा उनके कान एवं नाक भी छिंदवाते हैं। बसंत पंचमी के इस पर्व को गांवों में बहन-बेटी के पावन रिश्ते के पर्व के रूप में मनाने की भी परंपरा है। इस पर्व को मनाने के लिए बेटियां ससुराल से अपने मायके आती हैं, अथवा मायके से पिता अथवा भाई उन्हें स्वयं पकवान व आशीष देने बेटी के घर जाकर उसकी दीर्घायु की कामना करते हैं।

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