उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी सिद्धू पर एनजीटी ने लगाया 46,14,960 रुपये का जुर्माना


DGP BS SIddhu

उत्तराखंड पुलिस के पूर्व महानिदेशक बी.एस. सिद्धू पर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल-एन.जी.टी.) ने 46,14,960 रुपये( छियालिस लाख चौदह हजार नौ सौ साठ रु.) का जुर्माना लगाया है. प्रदेश में नौकरशाही में भ्रष्टाचार का चर्चा तो बहुत होता रहा है, लेकिन पुलिस के सर्वोच्च पद पर रह चुके किसी अफसर के खिलाफ सजा या आर्थिक दंड का संभवतः पहला मामला है. जिस मामले में सिद्धू को भारी भरकम आर्थिक दंड की सजा हुई है,उस पूरे मामले को देखें तो ऐसा लगता है कि कोई फिल्मी कहानी चल रही है,जिसमें उच्च पद पर बैठा व्यक्ति खलनायक का रोल अदा कर रहा है.
2012 में बी.एस. सिद्धू ,उत्तराखंड पुलिस में डी.जी.पी.(रुल्स एंड मैनुअल्स )थे. उसी समय उन्होंने देहरादून में ग्राम बीरगीरवाली में 7450 वर्ग मीटर जमीन खरीदी.सिद्धू के ही शब्दों में इस संपत्ति का सौदा 1.25 करोड़ रुपये में तय हुआ था और जिस पर सिद्धू ने 3407100 रुपये (चौतीस लाख सात हज़ार एक सौ रुपये) की स्टाम्प ड्यूटी भी चुकाई थी.लेकिन बी.एस.सिद्धू ने करोड़ों रुपए खर्च करके जो जमीन खरीदी,वह आरक्षित वन भूमि थी. सिद्धू का कथन था कि उन्होने यह जमीन किसी नाथूराम से खरीदी है.जबकि सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि इस भूमि को 1 मई 1970 के गजट नोटिफिकेशन द्वारा आरक्षित वन भूमि घोषित कर दिया गया था. लेकिन किन्ही वजहों से दाखिल-खारिज नहीं हुआ था यानि राजस्व रिकॉर्डों में भूमि वन विभाग के नाम पर नहीं चढ़ी थी.शायद यह तथ्य सिद्धू को पता लग गया था और इस लिए उन्हें उक्त जमीन को खुर्द-बुर्द करने की ठान ली थी.इस बात की तस्दीक इस तथ्य से भी होती है कि जिस नाथू राम,निवासी काशीराम क्वाटर,देहरादून से सिद्धू जमीन खरीदने का दावा करते हैं उस नाथू राम की मृत्यु तो 1983 में ही हो चुकी थी.रोचक तथ्य यह भी है कि उक्त नाथूराम ने 5 जुलाई 2012 को कुछ लोगों पर अपनी जमीन हडपने का मुकदमा भी कोतवाली देहरादून में दर्ज करवाया. विवाद बढ़ने के साथ 4 नाथू राम सामने आये और चारों के पिता का नाम और पता एक ही था ! यह उक्त मामले में चल रहे फर्जीवाड़े की तरफ ही इशारा कर रहा था.
लेकिन बात सिर्फ जमीन की खरीद पर ही नहीं रुकी. बल्कि मार्च 2013 में दो अलग-अलग तिथियों पर उक्त भूमि में खड़े साल के 25 पेड़ काट डाले गए. साल के पेड़ों के कटने से जो मामला शुरू हुआ,वह अब जा कर सिद्धू पर 46 लाख रुपए के जुर्माने के साथ थमा है. साल के पेड़ काटे जाने की बात समाचार पत्रों में ज़ोर-शोर से उछली. इस पर वन विभाग सक्रीय हुआ और उसने जिला एवं सत्र न्यायालय,देहारादून में इस मामले में दो मुकदमें दर्ज किए. सिद्धू ने कोशिश की कि वन विभाग द्वारा उनके खिलाफ दर्ज मुकदमे निरस्त हो जाएँ.जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होने ,डी.एफ.ओ. मसूरी वन प्रभाग समेत अन्य वन कर्मियों के खिलाफ ही पेड़ काटने का मुकदमा दर्ज करवा दिया. उक्त मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय,नैनीताल ने वन कर्मियों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी.

अलग-अलग जाँचों की कथा :
सिद्धू द्वारा आरक्षित वन भूमि खरीदने और पेड़ काटने के मामले में अलग-अलग एजेंसियों ने अलग-अलग समय पर जांच की. यह एक रोचक तथ्य है कि सारी जाँचों में सिद्धू दोषी पाये गए. लेकिन बावजूद इसके वे उत्तराखंड पुलिस के सबसे बड़े ओहदे तक पहुंचे और बिना किसी बाधा के रिटायर भी हो गए. वन विभाग की ओर से इस घटना की जांच करने वाले मसूरी वन प्रभाग की रायपुर रेंज के वन दरोगा वीरेंद्र दत्त जोशी ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा “…अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ती हेतु श्री वीरेंद्र सिंह सिद्धू द्वारा फर्जी तरीके से वन भूमि को खरीद कर उस पर खड़े साल वृक्षों का पातन करवाया ताकि जिस उद्देश्य से इनके द्वारा 1.6 करोड़ रुपये खर्च किये गए उसकी प्राप्ति हो सके.इस पूरे प्रकरण में पूरी साजिश इनके द्वारा रची गयी है तथा परिस्थितिजन्य साक्ष्य से इनके विरुद्ध भारतीय वन अधिनियम 1927 यथा संशोधित 2001 की धारा 26 च एवं ज के अंतर्गत अपराध की पुष्टि हो जाती है.”
अखबारों में जब यह मामला उछलने लगा तो तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत ने सिद्धू की संपत्ति खरीद के मामले में जांच का आदेश दिया. तत्कालीन सी.ओ.मसूरी-स्वतंत्र कुमार सिंह  द्वारा की गई जांच में इस पूरे प्रकरण के घटनाक्रम पर कई सवालिया निशान लगाते हुए किसी गहरे षड्यंत्र की ओर इशारा किया गया है.प्रकरण की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन सी.ओ.मसूरी ने इस प्रकरण की सी.बी.आई. या किसी अन्य स्वतंत्र एजेंसी से जांच करवाने की सिफारिश की थी.
सिद्धू प्रकरण में जिलाधिकारी,देहारादून और गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर सुवर्द्धन द्वारा भी जांच की गयी और सिद्धू ही कठघरे में पाये गए.
सिद्धू मामले की जांच का रोचक पहलू यह भी है कि इसमें छोटे पदों पर काम करने वाले अधिकारी-कर्मचारी, सिद्धू के ऊंचे ओहदे की हेकड़ी के सामने नहीं झुके. वन दारोगा की रिपोर्ट का हवाला ऊपर दिया ही जा चुका है. पुलिस महकमे में भी लोगों ने सिद्धू के ऊंचे पद की धौंस में आने के बजाय जांच की निष्पक्षता को कायम रखा. जैसा कि पहला उल्लेख किया जा चुका है कि सिद्धू ने भी वन विभाग के कर्मचारियों के खिलाफ थाना राजपुर में पेड़ काटने का मुकदमा दर्ज करवाया था. उक्त मुकदमे में पुलिस कर्मियों ने कुछ मजदूरों को पकड़ा और आरा भी बरामद किया. लेकिन इस से भी सिद्धू को राहत नहीं मिली. दरअसल पुलिस कर्मियों ने केस डायरी में दर्ज किया कि उन्होने हाथ से चलाया जाने वाला पेड़ काटने का आरा मजदूरों से बरामद किया. सिद्धू को जब यह मालूम पड़ा तो उन्होने पुलिस कर्मियों पर दबाव डाला कि वे लिखें कि इलैक्ट्रिक आरा बरामद हुआ है. लेकिन जांच करने वाले पुलिस कर्मियों ने फर्द से छेड़छाड़ करने में असमर्थता जाहिर कर दी. यह हाथ से चलने वाले आरे और इलैक्ट्रिक आरे का पेंच था,जो सिद्धू द्वारा वन कर्मियों पर दर्ज मुकदमे के लिए बेहद अहम था. सामान्य मजदूर पेड़ काटने के लिए हाथ से चलने वाले आरे का इस्तेमाल करते हैं,जबकि वन विभाग द्वारा पेड़ काटने के लिए इलैक्ट्रिक आरे का प्रयोग किया जाता है. सिद्धू वन विभाग पर पेड़ काटने का आरोप लगा रहे थे और पुलिस हाथ वाला आरा बरामद कर लायी थी !इससे सिद्धू का वन कर्मियों पर पेड़ काटने का आरोप खुद ही झूठा साबित हो रहा था.
इस प्रकरण में अभूतपूर्व किस्म की हिम्मत का परिचय दिया सब इंस्पेक्टर निर्विकार ने

निर्विकार उस वक्त भी उम्रदराज व्यक्ति थे. वे दो दिन के लिए वन कर्मियों के खिलाफ दर्ज मुकदमें में जांच अधिकारी रहे थे. वहीं तथ्यों की सही जानकारी होने पर वे,एक आंदोलनकारी की तरह अपने विभाग के मुखिया के खिलाफ खड़े हो गए. उन्होने जिला एवं सत्र न्यायालय देहारादून में तथ्यात्मक शपथ पत्र दाखिल करते हुए,स्वयं को मुकदमे में पक्ष बनाए जाने का प्रार्थनापत्र दिया. निर्विकार का ऐसा प्रार्थनापत्र देते ही उनका तबादला देहारादून से रुद्रप्रयाग करते हुए,उन्हें एकतरफा रिलीव कर दिया गया और उनके भाई की मृत्यु होने पर छुट्टी तक नहीं दी गयी. बेहतरीन सर्विस रिकॉर्ड के बावजूद इंस्पेक्टर पद पर प्रमोशन नहीं दिया गया. पर निर्विकार डिगे नहीं बल्कि उन्होने प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए सिद्धू को माफिया जैसा आचरण करने वाला व्यक्ति बताया. इसके बाद निर्विकार सस्पैंड कर दिये गए और तब तक सस्पैंड रहे,जब तक सिद्धू उत्तराखंड पुलिस के महानिदेशक रहे.
एन. जी. टी ने इस मामले में नोटिस जारी कर जब उत्तराखंड सरकार से जवाब मांगा तो राज्य सरकार की ओर से तत्कालीन मुख्य सचिव सुभाष कुमार ने जवाब, शपथ पत्र के रूप में दाखिल किया.3 मई 2014 को दिए गए उक्त शपथ पत्र के बिंदु संख्या 9 में तत्कालीन मुख्य सचिव स्पष्ट कहते हैं कि अपने पद का बेजा इस्तेमाल करते हुए और राजस्व रिकॉर्ड की खामियों का लाभ उठाते हुए बी.एस.सिद्धू ने आरक्षित वनभूमि की खरीद की और पेड़ काटे.इसी शपथ पत्र के बिंदु संख्या 12 में तत्कालीन मुख्य सचिव यह भी कहते हैं कि सिद्धू ने अपने पद का दुरूपयोग करते हुए वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों पर मुकदमा दर्ज करवाया.
17 जुलाई 2014 को राज्य सभा में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक प्रश्न के उत्तर में यह स्वीकार किया कि उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक श्री बी.एस.सिद्धू ने देहरादून में बीरगीरवाली में आरक्षित वन भूमि को खरीदने का षड़यंत्र रचा और इस भूमि पर खड़े साल के पेड़ भी काटे.
सिद्धू को संरक्षण किसने दिया :
प्रश्न यह उठता है कि सिद्धू के खिलाफ हुई तमाम जाँचों और उच्च पदस्थ व्यक्तियों द्वारा उनके खिलाफ एन.जी.टी. से लेकर राज्य सभा तक बयान देने के बावजूद वे पुलिस महानिदेशक कैसे बने और सेवानिवृत्त होने तक इस पद पर कैसे टिके रहे ?सीधा सा जवाब है- राजनीतिक संरक्षण से ,जो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें कांग्रेस-भाजपा दोनों से मिला.
तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत ने 10 अप्रैल 2013 को मुख्य सचिव को पत्र लिख कर इस प्रकरण की गंभीरता की ओर इंगित किया और मुख्य सचिव से इस प्रकरण को मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाने का आग्रह किया था.पता नहीं मुख्य सचिव प्रकरण को मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाये या नहीं.परन्तु इतने गंभीर आरोपों के बावजूद सत्यव्रत के सेवानिवृत्त होने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने बी.एस.सिद्धू की राज्य पुलिस के सर्वोच्च पद-महानिदेशक पर ताजपोशी कर दी. उनके बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत ने भी सिद्धू को कायम रखा. 2014 में जब उत्तराखंड विधानसभा का सत्र गैरसैण में आयोजित हुआ तो सिद्धू भी उस सत्र में देहारादून से गैरसैण पहुंचे. बाद में मालूम हुआ कि सिद्धू को आशंका थी कि विपक्षी भाजपा सत्र में उनका प्रकरण उठा सकती है. वे नहीं चाहते थे कि ऐसा हो. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि विपक्ष ने उनकी चाहत को पूरा किया और सिद्धू को राहत की सांस लेकर देहारादून वापस लौटने का मौका विपक्ष ने दिया. यह पहले ही उल्लेख किया गया है कि केंद्र की भाजपा सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के मंत्री ने राज्य सभा में सिद्धू के कारनामों की बात स्वीकार की. लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद उत्तराखंड भाजपा ने सिद्धू के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला और केंद्र सरकार ने भी ऐसे दागी अफसर के खिलाफ कार्यवाही किए जाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
सिद्धू किस कदर सत्ता के मुंह लगे थे,इसको हरीश रावत के मुख्यमंत्रित्व काल के एक वाकये से समझा जा सकता है. हरीश रावत के जन्मदिन के मौके पर सिद्धू उत्तराखंड के आकार वाला केक लेकर मुख्यमंत्री दरबार में पहुंचे थे. वैसा यह उत्तराखंड की हकीकत दर्शाता दृश्य था. पिछले 17 सालों से उत्तराखंड को केक समझ कर नेता-अफसर इसे छुरी-कांटे से उदरस्थ करने पर ही तो लगे हैं.
अपने 103 पृष्ठों के फैसले में एन.जी.टी. ने सिद्धू को आरक्षित वन भूमि की गैरकानूनी खरीद और उस पर खड़े 25 साल के पेड़ काटने का दोषी पाया है.एन. जी. टी. ने जुर्माने की रकम निर्धारित करने के लिए दो पैमानों का प्रयोग किया. एन. जी. टी. ने स्वतंत्र वन एवं पर्यावरण विश्लेषकों से उत्तराखंड में साल के पेड़ों का अनुसूचित मूल्य ज्ञात किया. 25 साल के पेड़ों का अनुसूचित मूल्य 1,84,752 रुपये आँका गया. साथ ही जंगल के सकल वन मूल्य का अभी आकलन किया गया. जहां से पेड़ काटे गए,उस जंगल के 3.86 एकड़ का सकल वन मूल्य 13,83,720.मूल्य आँका गया. एन. जी. टी. ने निर्णय दिया कि पेड़ों के अनुसूचित मूल्य का दस गुना और सकल वन मूल्य के दुगुने का योग करके जो धनराशि होती है,वह बी.एस. सिद्धू को जुर्माने के रूप में चुकानी होगी. कुल 46,14,960 रुपये की धनराशि सिद्धू को एक महीने के अंदर जिला वन अधिकारी के पास जमा करवानी होगी. जिस इलाके का यह मामला है, वन अधिकारी इस धनराशि से उस इलाके में तथा अन्यत्र वृक्षारोपण करवाएँगे.
जिस व्यक्ति पर राज्य में कानून व्यवस्था कायम करने की ज़िम्मेदारी थी,वह स्वयं भू-माफिया जैसा आचरण कर रहा था. लेकिन इससे बड़ी विडम्बना यह कि उसके इस आचरण का खुलासा होने के बावजूद उस व्यक्ति की नकेल कसने का कोई प्रयास राज्य सरकार ने नहीं किया. सोचिए तो ऐसे आपराधिक प्रवृत्ति के अफसरों के कंधे पर कानून व्यवस्था का जिम्मा डालने वाले,कानून व्यवस्था कायम रखना चाह रहे थे या कि कानून-व्यवस्था का जनाजा उठाना चाहते थे ?
-इन्द्रेश मैखुरी

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डीजीपी के खिलाफ अर्जी पर कोर्ट में सुनवाई आज, भाजपा नेता रवींद्र जुगरान ने दायर की है याचिका पद के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए हटाने की मांग की सीबीआई या एसआईटी से जांच कराने की गुहार

नैनीताल। उत्तराखंड में क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी जिन पर है, वही पुलिस महानिदेशक बीएस सिद्धू एक बार फिर कानूनी प्रक्रिया में फंसते दिख रहे हैं। भाजपा नेता रविंद्र जुगरान ने डीजीपी के खिलाफ नैनीताल उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर उन पर पद के दुरुपयोग की संभावना जताते हुए उन्हें हटाने और मामले की जांच सीबीआई अथवा कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच टीम (एसआईटी) से कराने की मांग की है। उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीके बिष्ट एवं न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की खंडपीठ ने बुधवार को सुनवाई के बाद याचिका की अग्रिम तिथि बृहस्पतिवार तय कर दी। याचिका में कहा गया है कि मसूरी वन प्रभाग के वीरगिरवाली गांव में वन भूमि को कब्जा करने और अवैध रूप से पेड़ काटने के मामले में वन विभाग के अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने संबंधी मामले में तत्कालीन मुख्य सचिव सुभाष कुमार ग्रीन ट्रिब्यूनल में बीएस सिद्धू की संलिप्तता स्वीकार कर चुके हैं। लिहाजा सिद्धू को डीजीपी जैसे अहम पद से हटा दिया जाना चाहिए। क्योंकि सिद्धू के डीजीपी बने रहने से उनके द्वारा पद के दुरुपयोग की संभावना बनी रहेगी। इसके अलावा उच्च न्यायालय उनके खिलाफ जांच के लिए एसआईटी बनाने अथवा प्रदेश सरकार को सीबीआई जांच का आदेश दे।

यह है पूरा मामला

सिद्धू पर आरोप है कि पुलिस महानिदेशक (रूल्स/मैनुअल्स) के पद पर तैनात रहते उन्होंने देहरादून के पुरानी मसूरी रोड, राजपुर स्थित ग्राम बीरगीरवाली में लगभग सवा करोड़ में 0.74 हैक्टेयर (7450 वर्ग मीटर) जमीन ( जिसमें एक पुराना भवन व 250 पेड़ खड़े थे) नाथूराम नाम के व्यक्ति से 21 मई 2012 को अनुबंध पत्र लिखवाया था, और 20 नवम्बर 2012 को इसकी रजिस्ट्री हुई थी। बाद में यह बात उजागर हुई की जिस नाथूराम के नाम से यह भूमि राजस्व अभिलेखों में दर्ज थी, उस की मृत्यु 1983 में ही हो चुकी थी। बाद में विवाद बढ़ने के बाद 4 नाथूराम सामने आ गये।
एक तथ्य यह भी है कि 1969 में ही गजट नोटिफिकेशन द्वारा उक्त भूमि को आरक्षित वन भूमि घोषित कर दिया गया था। यानी यह वन भूमि है। डीजीपी सिद्धू दोनों मामलों में जानकारी से इंकार करते हैं।
आगे मार्च 2013 में इस भूमि पर साल के लगभग 25 पेड़ अवैध रूप से काटे जाने की घटना प्रकाश में आई। 15 मई 2013 की मसूरी वन प्रभाग की रायपुर रेंज के वन दरोगा वीरेंद्र दत्त जोशी ने अपनी जांच रिपोर्ट में अवैध रूप से पेड़ काटने के लिए सिद्धू को उत्तरदायी ठहराते हुए उनके विरुद्ध मुकदमा दायर करने की संस्तुति की। जांच रिपोर्ट में यह तथ्य भी अंकित है कि सिद्धू द्वारा भूमि की खरीद से पहले वन विभाग के दो वन दरोगाओं से संपर्क कर उक्त जमीन के बारे में जानकारी मांगी गयी थी, और वन कर्मियों ने उन्हें आरक्षित वन के पिलर दिखा कर यह बता दिया था कि यह भूमि आरक्षित वन भूमि है।
आगे तत्कालीन पुलिस क्षेत्राधिकारी-मसूरी स्वतंत्र कुमार सिंह द्वारा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक देहरादून को अप्रैल 2013 में सौंपी गयी जांच रिपोर्ट में भी उक्त भूमि की फर्जी तरीके से सुनियोजित षड्यंत्र के तहत खरीद-फरोख्त किये जाने की संभावना प्रकट की थी और उक्त प्रकरण की गंभीरता को देखते हुई इसकी जांच सीबीआई. जैसी किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की संस्तुति की गयी थी। 10 अप्रैल 2013 को तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत ने सीओ मसूरी की जांच रिपोर्ट को सही ठहराते हुए मुख्य सचिव को पत्र लिख कर उक्त प्रकरण को मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाने का आग्रह किया था। जबकि सिद्धू द्वारा वन विभाग को उनके विरुद्ध सी.जे.एम. न्यायालय देहरादून में चल रहे मुकदमे वापस लेने के लिए पत्र लिखा गया। इस पत्र के सन्दर्भ में मसूरी वन प्रभाग के उप प्रभागीय वन अधिकारी (डिप्टी डिविजनल फॉरेस्ट आफिसर) द्वारा विधिक राय ली गयी। 21मई 2014 को मसूरी वन प्रभाग के उप प्रभागीय वन अधिकारी को दी गयी विधिक राय में देहरादून के जिला शासकीय अधिवक्ता(डीजीसी) ने मुक़दमे को निरस्त करने की कार्यवाही को विधि सम्मत नहीं होना बताया।
इधर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) नयी दिल्ली में 3 मई 2014 को दिए गए शपथ पत्र में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्य सचिव सुभाष कुमार ने स्वीकार किया कि सिद्धू ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अवैध रूप से वन भूमि खरीदी और पेड़ काटे। शपथ पत्र में यह भी कhaa गया है कि सिद्धू ने अपने पद का नाजायज फायदा उठाते हुए वन विभाग के प्रभारी वन अधिकारी, मसूरी वन प्रभाग व अन्य कई वन कर्मियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवा दिया।
अब स्थिति यह है की श्री सिद्धू को एक ओर न्यायालय अपने सम्मानों में “अभियुक्त” संबोधित कर रहे हैं तो दूसरी ओर वे राज्य पुलिस के सर्वोच्च पद-महानिदेशक पर हैं। यह भी बताया गया है की उनके खिलाफ जांच करने वाले और कई तथ्यों को सामने लाने वाले उपनिरीक्षक (सब इन्स्पेक्टर) निर्विकार को निलंबित कर दिया गया है।

उल्लेखनीय है कि इस मामले में नौ जुलाई 2013 को डीजीपी सिद्धू ने मसूरी के डीएफओ धीरज पांडेय, कुछ वन कर्मियों व कुछ अज्ञात लोगों के मामले में राजपुर थाने में जानबूझकर परेशान करने, धोखाधड़ी करने और सरकारी दस्तावेजों में छेड़छाड़ करने व धमकी देने के आरोपों में मामला दर्ज करवाया था। इस पर मामला उत्तराखंड उच्च न्यायालय आया, और उच्च न्यायालय ने अगले आदेशों तक के लिए वनाधिकारियों की गिरफ्तारी और निचली अदालत की कार्रवाई पर रोक लगाते हुए मामले की जांच के लिए विशेष जांच टीम-एसआईटी बनाने के आदेश दिए थे।
जबकि इधर डीजीपी देहरादून के डीएम को जमीन से अपना दावा वापस लेने का पत्र लिख चुके हैं, और जमीन की खरीद में किसी तरह का गैरकानूनी कार्य नहीं करने की बात कही है।