बैरन (18 नवंबर 1841) से पहले ही 1823 में नैनीताल आ चुके थे कमिश्नर ट्रेल


nainital panorama

-नैनीताल की आज के स्वरूप में स्थापना और खोज को लेकर ऐतिहासिक भ्रम की स्थिति
नवीन जोशी, नैनीताल। इतिहास जैसा लिख दिया जाए, वही सच माना जाता है, और उसमें कोई झूठ हो तो उस झूठ को छुपाने के लिए एक के बाद एक कई झूठ बोलने पड़ते हैं। प्रकृति के स्वर्ग नैनीताल के साथ भी ऐसा ही है। युग-युगों पूर्व स्कंद पुराण के मानस खंड में त्रिऋषि सरोवर के रूप में वर्णित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि सर्वप्रथम पीटर बैरन नाम का अंग्रेज व्यापारी 18 नवंबर 1841 को यहां पहुंचा, और नगर में अपना पहला घर-पिलग्रिम लॉज बनाकर नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाना प्रारंभ किया। लेकिन अंग्रेजी दौर के अन्य दस्तावेज भी इसे सही नहीं मानते। उनके अनुसार 1823 में ही कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल यहां पहुंच चुके थे और इसकी प्राकृतिक सुन्दरता देखकर अभिभूत थे, लेकिन उन्होंने इस स्थान की सुंदरता और स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं के मद्देनजर इसे न केवल अंग्रेज कंपनी बहादुर की नजरों से छुपाकर रखा, वरन स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी। इसके अलावा भी बैरन के 1841 की जगह 1839 में पहले भी नैनीताल आने की बात भी कही जाती है।

मिस्टर ट्रेल ने नैनीताल के बारे में किसी को कुछ क्यों नहीं बताया, इस बाबत इतिहासकारों का मत है कि शायद उन्हें डर था कि मनुष्य की यहाँ आवक बड़ी तो यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता पर दाग लग जायेंगे, और इस स्थान की पवित्रता को ठेस पहुंचेगी। ट्रेल के बारे में कहा जाता है कि वह कुमाउनी संस्कृति के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने रानीखेत की कुमाउनी युवती से ही विवाह किया था, और वह अच्छी कुमाउनी भी जानते थे। उन्हें 1834 में हल्द्वानी को बसाने का श्रेय भी दिया जाता है। उन्होंने ही 1830 में भारत-तिब्बत के बीच 5,212 मीटर की ऊंचाई पर एक दर्रे की खोज की थी, जिसे उनके नाम पर ही ट्रेल’स पास कहा जाता है। बताया जाता है कि उस दौर में निचले क्षेत्रों से लोग पशुचारण के लिए यहां सूर्य निकलने के बाद ही आते थे, और धार्मिक मान्यता के मद्देनजर सूर्य छुपने से पहले लौट जाया करते थे। यही कारण था कि ट्रेल ने इस स्थान की सुंदरता और स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं के मद्देनजर इसे न केवल अंग्रेज कंपनी बहादुर की नजरों से छुपाकर रखा, वरन स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी। इसी कारण 18 नवंबर 1841 में जब शहर के खोजकर्ता के रूप में पहचाने जाने वाले रोजा-शाहजहांपुर के अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन कहीं से इस बात की भनक लगने पर जब इस स्थान की ओर आ रहे थे तो किसी ने उन्हें इस स्थान की जानकारी नहीं दी। इस पर बैरन को नैंन सिंह नाम के व्यक्ति (उसके दो पुत्र राम सिंह व जय सिंह थे। ) के सिर में भारी पत्थर रखवाना पड़ा। उसे आदेश दिया गया, ‘इस पत्थर को नैनीताल नाम की जगह पर ही सिर से उतारने की इजाजत दी जाऐगी”। इस पर मजबूरन नैन सिंह बैरन को तत्कालीन आर्मी विंग केसीवी के कैप्टन सी व कुमाऊँ वर्क्स डिपार्टमेंट के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर कप्तान वीलर के साथ सैंट लू गोर्ज (वर्तमान बिडला चुंगी) के रास्ते नैनीताल लेकर आया। यह भी उल्लेख मिलता है कि बैरन ने यहाँ के तत्कालीन स्वामी, थोकदार नर सिंह को डरा-धमका कर, यहाँ तक कि उन्हें पहली बार लाई गयी नाव से नैनी झील के बीच में ले जाकर डुबोने की धमकी देकर इस स्थान का स्वामित्व कंपनी बहादुर के नाम जबरन कराया था। हालांकि अंतरराष्ट्रीय शिकारी जिम कार्बेट व ‘कुमाऊं का इतिहास” के लेखक बद्री दत्त पांडे के अनुसार बैरन दिसंबर 1839 में भी नैनीताल को देख कर लौट गया था, और 1841 में पूरी तैयारी के साथ वापस लौटा।

बैरन को बिलायत से भी सुंदर लगा था नैनीताल

नैनीताल। नैनीताल आने के बाद बैरन ने 1842 में आगरा अखबार में नैनीताल के बारे में पहला लेख लिखा। जिसमें लिखा था, ‘अल्मोड़ा के पास एक सुन्दर झील व वनों से आच्छादित स्थान है जो विलायत के स्थानों से भी अधिक सुन्दर है”। हालांकि यह भी यही कारण है कि अंग्रेजों ने नैनीताल को अपने घर बिलायत की तरह ही ‘छोटी बिलायत” के रूप में बसाया, और इसके पर्यावरण और इसकी सुरक्षा के भी पूरे प्रबंध किए।

1840 में (स्थापना से पहले से) स्थापित दुकान भी है शहर में

नैनीताल। दिलचस्प तथ्य है कि जिस शहर की अंग्रेजों द्वारा खोज व बसासत की तिथि 18 नवंबर 1841 बताई जाती है, वहां 1840 में स्थापित दुकान आज भी मौजूद है। तल्लीताल बाजार में ‘शाम लाल एंड संस” नाम की इस दुकान के स्वामी राकेश लाल साह ने बताया कि उनके परदादा शाम (श्याम का अपभ्रंश) लाल साह ने मंडलसेरा बागेश्वर से आकर यहां 1840 में दुकान स्थापित की थी। शुरू में यहां राशन का गोदाम था, जिससे अंग्रेजों को आपूर्ति होती थी। वह अंग्रेजों को उनके पोलो खेलने के लिए प्रशिक्षित घोड़े भी उपलब्ध करवाते थे। 1842-43 में गोदाम कपड़े की दुकान में परिवर्तित हो गई। तभी से दुकान के बाहर इसकी स्थापना का वर्ष लिखा है, जिसे समय-समय पर केवल ऊपर से पेंट कर दिया जाता है। उनके पास दुकान से संबंधित कई पुराने प्रपत्र भी हैं। इस दुकान के पास उस दौर में इंग्लेंड से सीधे कपड़े आयात व निर्यात करने का लाइसेंस भी था। यहां इंग्लेंड का हैरिस कंपनी का ट्वीड का कपड़ा मिलता था। बताया कि अगल-बगल वर्तमान मटरू शॉप में गोविंद एंड कंपनी वाइन शॉप तथा वर्तमान बिदास संस में पॉलसन बटर शॉप भी समकालीन थीं। अंग्रेजी दौर के बहुत बाद के वर्षों तक तल्लीताल बाजार में यहाँ से आगे के बाजार में अंग्रेज सैनिकों, अधिकारियों का जाना प्रतिबंधित था। वहां केवल भारतीय ही खरीददारी कर सकते थे। वहां नाच-गाना भी होता था।

विश्वास करेंगे, 1823 के मानचित्र में प्रदर्शित है नैनीताल

India 1823
India 1823

हम इस मानचित्र की सत्यता का दावा नहीं करते, परंतु 1823 में प्रकाशित बताए गए एटलस में भारत के इस मानचित्र में नैनीताल भी दर्शाया गया है। इस मानचित्र में उत्तराखंड का नैनीताल के अलावा केवल एक ही अन्य नगर-अल्मोड़ा प्रदर्शित किया गया है। यह मानचित्र विश्वसनीय विकीपीडिया की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है, तथा इसे वर्ष 2005 की नगर पालिका नैनीताल द्वारा शरदोत्सव पर प्रकाषित स्मारिका-शरदनंदा में भी प्रकाषित किया गया था। यदि इस मानचित्र पर इसके प्रकाषन का वर्ष 1823 सही लिखा है तो यह सोचने वाली बात होगी कि 18 नवंबर 1841 को अंग्रेजों द्वारा पहली बार खोजा गया बताया जाने वाला नैनीताल 1823 में कोई छोटा स्थान नहीं, अपितु नामचीन स्थान रहा होगा। कम से कम इतना ख्याति प्राप्त कि इस मानचित्र के निर्माता का ध्यान जब उत्तराखंड के स्थानों का नाम लिखने की ओर गया होगा तो उसे अल्मोड़ा के अलावा केवल नैनीताल नाम ही याद आया होगा। उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष यानी 1823 में ही जॉर्ज विलियम ट्रेल के नैनीताल आने की बात कही जाती है। उल्लेखनीय है कि नैनीताल का “त्रिषि सरोवर” के नाम से पौराणिक इतिहास भी है।

24 Comments

  1. 18 नवम्बर को बर्थ-डे मनाना गुलाम मानसिकता का प्रतीक है। नैनीताल की subaltern history जैसी कुछ लिखी जानी शेष है। नित्यानन्द मिश्रा जी जैसे मनीषी से लिखवाने का मौका मैं चूक गया। उम्मीद है कि प्रयाग पाण्डे, नवीन जोशी, और प्रो गोविन्द लाल साह की मेहनत कुछ रंग लायेगी।

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  2. सृष्टि के सृजन के साथ ही जन्मे नैनीताल का ये कैसा जन्मदिन। चलो मान भी लें, तो फिर बैरन से पहले क्या नर सिंह थोकदार को श्रेय नहीं मिलना चाहिए..और उन चरवाहों का क्या; जो इस कथित जन्मदिन की तारीख से कहीं पहले से यहां आते रहे थे, उन्होंने एक मंदिर भी बनाया था, पूजा भी करते थे…
    Rajiv Dubey ji और Navin Joshi ji की पोस्ट इन तथ्यों को बेहतर रेखांकित करती हैं…. खैर जो भी है, आज की तारीख में ऊपर आदरणीय धनेश पाण्डे जी के वक्तव्य पर भी गौर करने की जरूरत है…!!!

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  3. वैसे मेरी जानकारी के अनुसार 1823 में Mr. G.W. Traill, Commissioner of Kumaon & Garhwal ने पहली बार इस जगह को देखा था। इससे मेरे उपरोक्त सवाल का जवाब मिल जाता है। मतलब, दोनों ही मण्डल भी थे और 1823 में यह स्थान एक यूरोपीय नागरिक द्वारा देखा जा चुका था। अतः मानचित्र की सत्यता और इसके आधार पर “नैनीताल” नाम प्रमाणित हो जाते हैं।
    जो मूल सवाल शेष रह जाता है, वह ये कि….
    18 नवंबर, 1841 को नैनीताल का जन्मदिन मानने का फिर क्या औचित्य…???

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  4. Your blog gives complete information about the discovery of Nainital. Very well documented and with facts. That’s why I don’t believe in this Birthday celebration of Nainital (particularly the date)
    Like you, I also don’t understand the reason of this kathit janmdin…; jabki sari jaankari available hai..

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  5. नवीन दा आप भी यार दाज्जू कमाल ही कर देते हो, अंग्रजो के जाने के बाद भी कुछ अंग्रजी परस्त लोगो को इंग्लैंड का टिकेट नहीं मिल पाया इस कारण यही छुट गए. अब आप ही बताओ जहाँ दुनिया हमारी संस्कृति को मान दे रही, हम बेचारे क्या करे. अब दीया जलाकर तो जन्मदिन वैसे भी नहीं मना सकते तो चलो केक ही काट लिया.

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