‘पथरीली पगडंडियों पर’ अपने साथ दुनिया के इतिहास की सैर भी कराते हैं वल्दिया


Pathrili Pagdandiyon par-पद्मभूषण प्रो. वल्दिया की आत्मकथात्मक पुस्तक-पथरीली पगडंडियों पर का चंडी प्रसाद भट्ट व अन्य गणमान्य जनों के हाथों हुआ विमोचन
-पुस्तक में लालित्य युक्त गद्य के साथ एक वैज्ञानिक के भीतर कहीं-कहीं कवित्व के भी होते हैं दर्शन
नवीन जोशी, नैनीताल। पद्मभूषण प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया की आत्मकथात्मक पुस्तक-पथरीली पगडंडियों पर का रविवार (12.04.2015) को पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट व अन्य गणमान्य जनों के हाथों विमोचन किया गया। कार्यक्रम में वक्ताओं ने प्रो. वल्दिया की एक वैज्ञानिक के हिंदी लेखक के रूप में स्थापित होने को लेकर प्रशंशा की, वहीं विज्ञान को देश के जन-जन की भाषा हिंदी के जरिए आम जन तक पहुंचाने के लिए उनके द्वारा पूर्व से किए जा रहे प्रयासों की भी सराहना की। वक्ताओं ने कहा कि वल्दिया अपनी पुस्तक ‘पथरीली पगडंडियों पर” के जरिए पाठकों को अपने साथ दुनिया के इतिहास की सैर भी कराते हैं।

गौरतलब है कि हिंदी में लेखन प्रो. वल्दिया के लिए नया नहीं है। वह हिंदी में लेखन के लिए ‘हिंदी सेवी सम्मान” भी प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन इस पुस्तक में एक वैज्ञानिक से इतर डा. वल्दिया ने विशुद्ध साहित्यिक तरीके से अपनी बात को जिस तरह लिपिबद्ध किया है, उसमें न केवल स्तरीय गद्य के लालित्य वरन एक वैज्ञानिक के भीतर विरले ही मिलने वाले कवित्व के दर्शन भी होते हैं, और एक लेखक के रूप में भी वह विस्तार करते हैं। ‘लोल लहर-सी चपल तन्वंगी ने सहज प्रफुल्ल भाव से उत्तर दिया..” तथा ‘रंगारंग अनुभवों के फूल चुनते, गुनगुनाते चलते हुए ऐसी स्थितियों से भी गुजरा, जब लगा कि मजबूरियां मेरे हौंसलों को तोड़ देंगी, असफलताएं सपनों को बिखेर देंगी..” आदि उनकी आत्मकथा के प्राक्कथन-प्रारंभ की ही बानगी हैं जिनसे पता चलता है कि किस तरह उन्होंने बर्मा के एक गांव-कलौ में जन्म लेने व अपने दादा के साथ बचपन बिताने के बाद हिमालय और उत्तराखंड को अपने कदमों से नापा और अनुभवों से बालों को पकाया है। उनके लालित्य युक्त गद्य पर पुस्तक के प्रकाशक पहाड़ प्रकाशन के प्रमुख एवं डा. वल्दिया को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित करने वाले पद्मश्री प्रो. शेखर पाठक ने भी अपने लेख-एक विज्ञानी का बनना में इसी कवित्व के गुण का वर्णन किया है। खास बात यह भी रही कि उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक का विमोचन राज्य के अन्य पद्मभूषण व अपनी पूर्व में आत्मकथा-पर्वत-पर्वत, बस्ती-बस्ती लिखने वाले चंडी प्रसाद भट्ट के हाथों उनके बालसखा बीडी खर्कवाल, डा. प्रयाग जोशी, अपनी आत्मकथा ‘मेरी यादों का पहाड़” लिखने वाले पहाड़ के एक अन्य वैज्ञानिक देवेन मेवाड़ी व प्रो. एलएस बिष्ट बटरोही आदि की उपस्थिति में किया गया।
उपस्थित लोगों से खचाखच भरे नैनीताल क्लब में पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट ने प्रो. वल्दिया के बाल सखा बीडी खर्कवाल, अन्य विज्ञान लेखक देवेन मेवाड़ी, प्रो. बटरोही, कुमाऊं विवि के कुलपति प्रो. एचएस धामी, डीएसबी परिसर की पूर्व डीएसडब्लू डा. कविता पांडे व श्रीमती वल्दिया आदि के हाथों पहाड़ प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक-पथरीली पगडंडियों पर का विमोचन किया गया। डा. प्रयोग जोशी ने पुस्तक की विस्तार से समीक्षा करते हुए बताया कि इसे पढ़ते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में बर्मा द्वारा झेली गई विभीषिका, पॉल थरूर की बर्मा से चीन सीमा तक की उसी दौर में की गई यात्रा, महात्मा गांधी और मुल्कराज आनंद और गोर्की की मास्को यात्रा की झलक भी दिखती है। पुस्तक को पढ़ते हुए एक छात्र, शिक्षक व वैज्ञानिक के रूप में वल्दिया द्वारा हिमालय की जगह दो करोड़ वर्ष पूर्व रहे टेथिस सागर की थाह लेते हुए तथा न्यूयार्क, म्यूनिख, जॉर्जिया व पेशावर तक किए गए उनके अनवरत फील्ड वर्क की यात्रा भी हो जाती है। वहीं अपने संबोधन में प्रो. वल्दिया ने कहा कि प्रो. शेखर पाठक के बार-बार कहने पर उन्होंने यह पुस्तक लिखी। बर्मा के कलौ नाम के गांव से वापस अपनी ‘जड़ौं” पिथौरागढ़ लौटने व जेएनयू से होते हुए पद्मश्री व पद्मभूषण तक ‘फैलने” की यात्रा सुनाते हुए बताया कि उन्हें बचपन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को देखने का मौका भी मिला था। नेताजी ने ही छह जुलाई १९४४ को विरोधी विचार होते हुए भी गांधी को महात्मा के रूप में संबोधित किया था। १९४४ में भी एक बार देश की आजादी जैसा माहौल बन गया था, जब इंफाल में तिरंगा झंडा फहरा दिया गया था। उन्होंने अपनी सफलता को गुरुजनों का आशीर्वाद भी बताया। अध्यक्षता कर रहे चंडी प्रसाद भट्ट ने हिमालय के विराट स्वरूप से बात शुरू करते हुए कहा कि वैज्ञानिकों की जीवनियां ही पढ़ने को नहीं मिलतीं। वल्दिया की आत्मकथा आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी होगी। देवेन मेवाड़ी, डा. बटरोही, डा. कविता पांडे, डा. पाठक व कुलपति प्रो. धामी आदि ने भी विचार रखे। संचालन डा. गिरिजा पांडे ने किया। इस अवसर पर नारायण सिंह जंतवाल, डा. बीएस बिष्ट, राजीव लोचन साह, जेएस मेहता, पुश्किन फत्र्याल सहित बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे।

हिमालय की ऐतिहासिक व भूगर्भीय परतें खोलने में रहा है प्रो. वल्दिया का बड़ा योगदान

-पहाड़ पर मैग्नेसाइट, खड़िया आदि खनिजों की खोज, प्रदेश में बांधों के निर्माण, राज्य के भू-क्षरण संभावित क्षेत्रों की पहचान व बचाव पर रहा है व्यापक कार्य
-कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर में भूविज्ञान विभाग की स्थापना और इसे सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडीज के स्तर तक पहुंचाने में रहा है अप्रतिम योगदान
नवीन जोशी, नैनीताल। सोमवार को राष्ट्रपति से देश का तीसरा सर्वोच्च पद्म भूषण सम्मान प्राप्त कर उत्तराखंड राज्य का नाम रोशन करने वाले ख्यातिलब्ध भूविज्ञानी, शिक्षाविद्, लेखक और पर्यावरणविद् प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का देश के साथ ही उत्तराखंड के लिए कई बड़े उल्लेखनीय कार्य किए हैं। हिमालय पर्वत के स्थान पर करीब दो करोड़ वर्ष पूर्व टेथिस महासागर की उपस्थिति होने, और लघु हिमालय के पहाड़ों की संस्तरिकी के अन्य पहाड़ों से इतर उल्टा यानी कम उम्र पहाड़ों के नीचे और अधिक पुराने पहाड़ों के उनके ऊपर होने जैसी अनूठी बातों को दुनिया के समक्ष लाने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है। उत्तराखंड में मैग्नेसाइट तथा खड़िया व स्लेट आदि खनिजों की उपस्थिति से भी उन्होंने दुनिया को रूबरू करवाया, तथा यहां की कमजोर भू संरचना के मद्देनजर भूधंसाव व भूक्षरण संभावित स्थानों की पहचान तथा इनसे बचने के उपाय एवं इनके बीच बांधों के निर्माण पर उनका अप्रतिम योगदान रहा है। कुमाऊं विवि में उनके द्वारा स्थापित भूविज्ञान विभाग आज उच्चानुशील केंद्र (सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडीज) के स्तर तक पहुंच गया है।
20 मार्च 1937 में प्रदेश के पिथौरागढ़ जिले में जन्मे वल्दिया के बारे में बताया जाता है कि वह छात्र जीवन से ही नए शोधों व खोजों में लगे रहते थे। 1976 में कुमाऊं विवि के तत्कालीन डीएसबी संगठक महाविद्यालय में मात्र 39 वर्ष की आयु में प्रोफेसर बनने से पूर्व ही वह राजस्थान विवि उदयपुर व वाडिया इंस्टिट्यूट देहरादून में उपनिदेशक रह चुके हैं। तथा 1959 में लखनऊ विवि से एमएससी करने और वहीं प्रवक्ता बन जाने के दौरान ही उन्होंने पिथौरागढ़ की चंडाक पहाड़ी व गंगोलीहाट क्षेत्रों में ‘स्ट्रोमेटोलाइट्स” नाम के एक प्रकार के शैवाल की पहचान कर उसके आधार पर करीब दो करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के पहाड़ों की जगह हजारों मीटर गहरा टेथिस महासागर होने की परिकल्पना कर उसकी विकास यात्रा का अध्ययन करने लगे थे। 1961-62 में 25 वर्ष की उम्र से ही उनके शोध पत्र देशी-विदेशी विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। वे ही पहाड़ों में मैग्नेसाइट खनिज की उपलब्धता को दुनिया के समक्ष अपने शोध पत्रों के माध्यम से लाए, जिसके बाद पिथौरागढ़ व अल्मोड़ा में इसकी फैक्टरियां लगीं। नैनीताल की नैनी झील के अलावा कश्मीर की डल व भोपाल की झीलों में हुए संरक्षण के कार्य उन्हीं के शोधों के परिणामस्वरूप बताए जाते हैं। डीएसबी में 1975 में बने भूविज्ञान विभाग में अपने शोध छात्रों के साथ इकलौते कक्ष के वर्षा के दौरान पानी चूने के कारण छाते लेकर शोध कार्य करने के दौर से लेकर 2012 में इसे उच्चानुशील केंद्र बनाने तक को उनके विभाग के लोग उन्हीं का योगदान बताने में नहीं झिझकते। 1995 तक वह कुमाऊं विवि में कार्यरत रहे, तथा इस दौरान भूविज्ञान विभागाध्यक्ष तथा कुमाऊं विवि के कार्यकारी कुलपति भी रहे। प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकारों की समिति के सदस्य, विज्ञान के क्षेत्र के बड़े पुरस्कार जीएस मोदी, हिंदी सेवी सम्मान एवं पद्मश्री (2007) सम्मानों से वह पूर्व में ही नवाजे जा चुके हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च में कार्यरत प्रो. वल्दिया अभी भी पहाड़ से जुड़े हुए हैं। वह हर वर्ष गर्मियों में यहां एलपीएस के पास स्थित अपने आवास पर रहने आते हैं, तथा पिथौरागढ़ जिले में बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि बढ़ाने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बम धमाकों में खोई श्रवण शक्ति

नैनीताल। शुरुआती जीवन में बेहद अभावों में रहकर भी ऊंचाई पर पहुंचे प्रो. वल्दिया के दादा म्यांमार (तत्कालीन वर्मा) में राजधानी रंगून के पास कलावा नाम के स्थान पर कार्यरत थे। बताया जाता है कि 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान द्वारा रंगून पर की गई भीषण बमबारी के धमाकों की वजह से उनकी श्रवण शक्ति काफी क्षींण हो गई।

प्रो. वल्दिया की कुछ प्रमुख बातें

-भारतीय महाद्वीप एशिया महाद्वीप को हर वर्ष 54 सेमी की दर से उत्तर दिशा की ओर धकेल रहा है।
-हिमालय के पहाड़ प्रतिवर्ष 18 मिमी की दर से ऊपर उठ रहे हैं।
-नेपाल के पहाड़ तीन से पांच मिमी प्रतिवर्ष की दर से ऊपर उठ रहे हैं।
-छोटे भूकंपों से ही भूगर्भ के भीतर की ऊर्जा बाहर निकलती रहती है, तथा अंदर का तनाव कुृछ हद तक कम होता रहता है।
-प्रकृति मानव के विकास के बीच नहीं आ रही वरन मानव प्रकृति के बीच आ रहा है, इस कारण केदारनाथ जैसी आपदाएं आ रही हैं।                                                                                                       -नदियां वर्षों बाद वापस अपने मार्ग पर लौट कर आती हैं, इसलिए नदियों के करीब मानव को प्रतिरोध या अपनी बस्तियां, सड़क आदि नहीं बनानी चाहिए।

मोदी से विज्ञान जगत में निराशा, पर आशा बाकी: पद्मभूषण वल्दिया

-उत्तराखंड की बजाय कर्नाटक की ओर से पुरस्कार मिलने के सवाल को टाल गए
नैनीताल। अभी हाल में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों देश का तीसरा सर्वाेच्च पद्मभूषण पुरस्कार प्राप्त करने वाले भू वैज्ञानिक प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश के विज्ञान जगत में निराशा का माहौल है। विज्ञान जगत को ना तो सरकार से दिशा-निर्देश ही प्राप्त हो रहे हैं, और ना अपेक्षित आर्थिक सहायता ही मिल पा रही है। पीएम मोदी ने स्वयं भी जो घोषणाएं की थीं, वह भी पूरी नहीं हो रही हैं। विज्ञान से जुड़े अनेक संस्थानों में एक-डेढ़ वर्ष से निदेशक व महानिदेशकों की नियुक्ति तक नहीं हो रही है। अलबत्ता, उन्होंने जोड़ा कि वह आशावादी हैं कि मोदी के नेतृत्व में जिस तरह देश अन्य दिशाओं में तेजी से आगे बढ़ रहा है, उसी तरह विज्ञान जगत के लिए भी ‘अच्छे दिन” आएंगे।
प्रो. वल्दिया रविवार (12.04.2015) को मुख्यालय में मीडिया कर्मियों के सवालों के जवाब दे रहे थे। उन्होंने 14 वर्षों में उत्तराखंड के नियोजन से भी स्वयं को असंतुष्ट बताया। अलबत्ता उत्तराखंड के बजाय कर्नाटक की ओर से पद्मभूषण हेतु नाम जाने पर सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा, और स्वयं के वर्ष में चार माह उत्तराखंड में ही कार्य करने व यहां के लोगों की शुभकामनाओं से एक साधन विहीन व्यक्ति (स्वयं) को सम्मान मिलने की बात कही, लेकिन उनकी जुबां से यह दर्द भी बाहर आया कि जिसे समाज ने भुला दिया था, उसे पुरस्कार के योग्य समझा गया। हिमालयी क्षेत्र के लिए उन्होंने आपदाओं का सामना करने के लिए नीतियां बनाने व उनका ठीक से क्रियान्वयन करने, जल प्रवाह को बढ़ाने के लिए पहाड़ों पर भी बिना देर किए बड़े पैमाने पर वर्षा जल संग्रहण के प्रयास करने तथा वन संपदा के संरक्षण को स्थानीय जन समुदाय से जोड़ने की आवश्यकता जताई।

प्रो. वल्दिया के दो आलेख:

1. अपने आप नहीं आ रही, बुलाई जा रही हैं आपदाएं !

नवीन जोशी, समय लाइव, नैनीताल। दैवीय आपदा के बारे में जहां धारी देवी की मूर्ति को उनके स्थान से हटाने और प्रदेश में बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं बनाने जैसे अनेक कारण गिनाए जा रहे हैं, वहीं भू-वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि आपदाएं स्वयं नहीं आ रही हैं, वरन बुलाई जा रही हैं। आपदा मनुष्य के पास नहीं आ रहीं, वरन मनुष्य आपदा के पास स्वयं जा रहा है। दूसरे विश्व में बहुचर्चित ग्लोबल वार्मिग का सर्वाधिक असर पहाड़ों पर हो रहा है।भू-वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया के अनुसार करीब दो करोड़ वर्ष पुराना हिमालय दुनिया का युवा पहाड़ कहा जाता है। अपने दौर के महासमुद्र टेथिस की कमजोर बुनियाद पर जन्मा हिमालय आज भी  युवाओं की तरह ऊंचा उठ रहा है। उन्होंने बताया कि भारतीय भू-प्लेट हर वर्ष करीब 55 मिमी की गति से उत्तर दिशा की ओर बढ़ रही है। ऐसे में ऊंचे उठते पहाड़ अपने गुरुत्व केंद्र को संयत रखने की कोशिश में अतिरिक्त भार को नीचे गिराते रहते हैं। दूसरी ओर पानी अपनी प्रकृति के अनुसार इसे नीचे की ओर मैदानों से होते हुए समुद्र में मिलाता रहता है। ऐसे में ऊंचे उठते पहाड़ों और नीचे की ओर बहते पानी के बीच हमेशा से एक तरह की जंग चल रही है, और पहाड़ कमजोर होते जा रहे हैं। नदियों के किनारे की रेत, राख, कंकड़-पत्थर व बालू आदि की भूमि पर अच्छी कृषि होने के साथ ही इसके कमजोर होने और कम श्रम से ही कार्य हो जाने के लालच में पहाड़ पर अधिकतर सड़कें नदियों के किनारे ही बनाई जाती हैं। सड़कों से पानी को हटाने का प्रबंध भी नहीं किया जाता, इस कारण यहां लगातार पानी के रिसते जाने और वाहनों के भार से भूस्खलन होते जाते हैं। सड़कों के किनारे ही बाजार, दुकानें आदि व्यापारिक गतिविधियां विकसित होती हैं। यहां तक कि नदियों के पूर्व में रहे प्रवाह क्षेत्रों में भी भवन बन गए हैं, और गत दिनों आई जल पल्रय में देखें तो सर्वाधिक नुकसान नदियों के किनारे के क्षेत्रों और सड़क के नदी की ओर के भवनों को ही पहुंचा है।

प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का कहना है कि पहाड़ पर अतिवृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना सामान्य बात है, लेकिन इनसे होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितनी बड़ी आबादी के क्षेत्रों में होता है। आबादी क्षेत्रों में निर्बाध रूप से निर्माण हो रहे हैं। सरकार जियोलॉजिकल सव्रे आफ इंडिया की रिपोटरे की भी अनदेखी करती रही है। नदियों के छूटे पाटों में यह भुलाकर भवन बन गए हैं कि वह वापस अपने पूर्व मार्ग (फ्लड वे) में नहीं लौटेंगी। लेकिन इस बार ऐसा ही हुआ, और अकल्पनीय नुकसान हुआ। वहीं केदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया कि यह मंदाकिनी नदी के पूर्वी और पश्चिमी पथों के बीच ग्लेशियरों द्वारा छोड़ी गई जमीन-वेदिका (टैरेस) पर बना हुआ है, जबकि अन्य निर्माण नदी के पूर्व पथों पर बने थे। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली संस्करण, जून 29, 2013,शनिवार, पेज-15)

2. हर वर्ष दो सेमी तक ऊपर उठ रहे हैं हम

-एशिया को 54 मिमी प्रति वर्ष उत्तर की ओर धकेल रहा है भारत

नवीन जोशी, नैनीताल। शीर्षक पड़ कर हैरत में न पड़ें । बात हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की हो रही है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात भू वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. केएस वाल्दिया का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप एशिया को 54 मिमी की दर से हर वर्ष उत्तर की आेर धकेल रहा है। इसके प्रभाव में हिमालय के पहाड़ प्रति वर्ष 18 मिमी तक ऊंचे होते जा रहे हैं।  

प्रो. वल्दिया ने कहना है कि भारतीय प्रायद्वीपीय प्लेट 54 मिमी से चार मिमी कम या अधिक की दर से उत्तर दिशा की ओर सरक रही है, इसका दो तिहाई प्रभाव तो बाकी देश पर पड़ता है, लेकिन सवाधिक एक तिहाई प्रभाव यानी 18 मिमी से दो मिमी कम या अधिक हिमालयी क्षेत्र में पड़ता है। मुन्स्यारी से आगे तिब्बतन—हिमालयन थ्रस्ट पर भारतीय व तिब्बती प्लेटों का टकराव होता है। कहा कि यह बात जीपीएस सिस्टम से भी सिद्ध हो गई है। उत्तराखंड के बाबत उन्होंने कहा कि यहां यह दर 18 से 2 मिमी प्रति वर्ष की है। कहा कि न केवल हिमालय वरन शिवालिक पर्वत श्रृंखला की ऊंचाई भी बढ़ रही है। उन्होंने नेपाल के पहाड़ों के तीन से पांच मिमी तक ऊंचा उठने की बात कही। 

उत्तराखंड के बाबत उन्होंने बताया कि यहां मैदानों व शिवालिक के बीच हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट, शिवालिक व मध्य हिमालय के बीच मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), तथा मध्य हिमालय व उच्च हिमालय के बीच मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे बड़े भ्रंस मौजूल हैं। इनके अलावा भी नैनीताल से अल्मोड़ा की ओर बढ़ते हुए रातीघाट के पास रामगढ़ थ्रस्ट, काकड़ीघाट के पास अल्मोड़ा थ्रस्ट सहित मुन्स्यारी के पास सैकड़ों की संख्या में सुप्त एवं जागृत भ्रंस मौजूद हैं। हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए यह भ्रंस संकरे होते चले जाते हैं।

लेकिन भू गर्भ में ऊर्जा आशंकाओं से कम

नैनीताल। प्रो. वल्दिया का यह खुलासा पहाड़ वासियों के लिये बेहद सुकून पहुंचाने वाला हो सकता है। अब तक के अन्य वैज्ञानिकों के दावों से इतर प्रो. वल्दिया का मानना है कि छोटे भूकंपों से भी पहाड़ में भूकंप की संभावना कम हो रही है। जबकि अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि 1930 से हिमालय के पहाड़ों में कोई भूकंप न आने से भूगर्भ में इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा का तनाव मौजूद है जो आठ से अधिक मैग्नीट्यूड के भूकंप से ही मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत प्रो.वाल्दिया का कहना है कि हिमालय में सर्वाधिक भूकंप आते रहते हैं। इनकी तीव्रता भले कम हो, लेकिन इस कारण भूगर्भ से ऊर्जा निकलती जा रही है। इसलिये भूगर्भ में उतना तनाव नहीं है, जितना कहा जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकृति मां की तरह है, वह कभी किसी का नुकसान नहीं करती। भूकंप व भूस्खलन अनादि काल से आ रहे हैं। इधर जो नुकसान हो रहा है वह इसलिये नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं आबादी क्षेत्र में आ रही हैं, वरन मनुष्य ने आपदाओं के स्थान पर आबादी बसा ली हैं। कहा कि वैज्ञानिक व परंपरागत सोच के साथ ही निर्माण करें तो आपदाओं से बच सकते हैं। सड़कों के निर्माण में भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट न लिये जाने पर उन्होंने नाराजगी दिखाई।

अपरदन बढऩे का है खतरा 

नैनीताल। पहाड़ों के ऊंचे उठने के लाभ—हानि के बाबत पूछे जाने पर कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत का कहना है कि इस कारण पहाड़ों पर अपरदन बढ़ेगा। यानी भू क्षरण व भूस्खलनों में बढ़ोत्तरी हो सकती है। पहाड़ों के ऊंचे उठते जाने से उनके भीतर हरकत होती रहेगी। वह बताते हैं कि इस कारण ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट की ऊंचाई 8,848 मीटर से दो मीटर बढ़कर 8,850 मीटर हो गई है। यह जलवायु परिवर्तन का भी कारक हो सकता है 

भूगर्भविद्, वैज्ञानिक पद्म भूषण खड्ग सिंह वल्दिया का जीवन परिचय

माताः श्रीमती नन्दा वल्दिया, पिताः स्व. देव सिंह वल्दिया, जन्मतिथि : 20 मार्च 1937, जन्म स्थान : कलौ (म्यामार), पैतृक गाँव : घंटाकरण जिला : पिथौरागढ़, वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : 1 पुत्र, शिक्षा : एमएससी., पीएचडी

प्रमुख उपलब्धियाँ : 1965-66 में अमेरिका के जान हापकिन्स विश्वविद्यालय के ‘पोस्ट डाक्टरल’अध्ययन और फुलब्राइट फैलो। 1969 तक लखनऊ विवि में प्रवक्ता। राजस्थान विवि, जयपुर में रीडर। 1973-76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलॉजी में वरिष्ट वैज्ञानिक अधिकारी। 1976 से 1995 तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में विभिन्न पदों पर रहे। 1981 में कुमाऊँ विवि के कुलपति तथा 1984 और 1992 में कार्यवाहक कुलपति रहे। 1995 से जवाहरलाल नेहरू सेन्टर फार एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च केन्द्र बंगलौर में प्रोफेसर हैं। मध्य हिमालय की भूवैज्ञानिक संरचना से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण अध्ययनों के अध्येता। उल्लेखनीय कार्य के लिए 1976 में ‘शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार’ से सम्मानित। जियॉलाजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा ‘रामाराव गोल्ड मैडल’। 1977-78 में यूजीसी द्वारा राष्ट्रीय प्रवक्ता सम्मान। राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा ‘एसके मित्रा एवार्ड’ और डीएन वाडिया मैडल। 1997 में भारत सरकार द्वारा ‘नेशनल मिनरल अवार्ड एक्सीलेंस’। दो दर्जन से अधिक विशेषज्ञों की राष्ट्रीय समितियों, परिषदों, कमेटियों के सदस्य हैं। 1983 में प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य और योजना आयोग की अनेक उप समितियों के सदस्य रहे। 2 फरवरी से 2003 इन्सा के राष्ट्रीय प्रोफेसर।

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