1.2 करोड़ वर्ष पुराना इतिहास संजोए, उच्च हिमालयी मिनी कश्मीर-सोर घाटी पिथौरागढ़


Pithoragarhउच्च हिमालयी हिमाच्छादित पंचाचूली पर्वत श्रृंखलाओं तथा कल-कल बहती सदानीरा काली-गोरी व रामगंगा जैसी नदियों के बीच प्राकृतिक जैव विविधता से परिपूर्ण उत्तराखंड के सीमान्त जनपद मुख्यालय पिथौरागढ़ की पहचान ‘सोर’ यानी सरोवरों की घाटी तथा ‘मिनी कश्मीर’ के रूप में भी है। भारतीय प्रायद्वीप एवं एशिया महाद्वीपीय भू-पट्टियों के बीच करीब 1.2 करोड़ वर्ष पूर्व हुए मिलन या टक्कर की गवाही स्वरूप आज भी तत्कालीन टेथिस सागर को अपने  नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व स्थित लेप्थल, लिलंग व गर्ब्यांग नाम के पर्वतीय गावों में “शालिग्राम” कहे जाने वाले और आश्चर्यजनक तौर पर मिलने वाले समुद्री जीवाश्मों को संभाले पिथौरागढ़ की ऐतिहासिक और विरासत महत्व की पहचान भी रही है। पांडु पुत्र नकुल के नाम पर मुख्यालय के चार किमी करीब मौजूद खजुराहो स्थापत्य शैली में बना नकुलेश्वर मंदिर महाभारत काल से इस स्थान के जुड़ाव की पुष्टि करता है। महान राजपूत शासक पृथ्वी राज चौहान से भी इसके नाम को जोड़ा जाता है। उत्तराखंड राज्य के राज्य पशु कस्तूरा के एकमात्र मृग विहार और अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य भी यहां दर्शनीय हैं। पिथौरागढ़ ऐरो स्पोर्टस यानी पैराग्लाइडिंग जैसे हवा के तथा सरयू व रामगंगा नदियों में रिवर राफ्टिंग व मुन्स्यारी के कालामुनी व खलिया टॉप में स्कीइंग व हैंग ग्लाइडिंग जैसे साहसिक खेलों के लिए भी सर्वश्रेष्ठ गंतव्य है।

इतिहास

Pithoragarh-1952
Pithoragarh-1952

इतिहास से बात शुरू करें तो एटकिंसन के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की थी। माना जाता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष 1437 से 1450) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सोर घाटी पर कब्जा कर लिया एवं वर्ष 1449 में इसे कुमाऊं या कूर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़ नाम से यहां एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इस स्थान का नाम पिथौरागढ़ हुआ। हालांकि एक अन्य मान्यता के अनुसार सर्वप्रथम यहां खस राजवंश के शासकों का राज रहा। बाद में पृथ्वीराज चौहान के अपने राज्य विस्तार की मुहिम के दौरान पिथौरागढ़ तक अपनी विजय पताका फहराई, तथा इसे ‘राय पिथौरा’ नाम दिया। 1364 में काबिज हुए कत्यूरी शासकों के दौर में इस स्थान का नाम ‘पृथ्वी गढ़’ और बाद में मुगलों के काल में पिथौरागढ़ हो गया। ब्रह्म, चंद, गोरखा और अंग्रेजों ने भी यहां अलग-अलग समय में शासन किया। 16वीं सदी में आए चंद राजाओं ने 1790 में यहां किले का निर्माण कराया, जिसमें वर्तमान में राजकीय बालिका इंटर कालेज संचालित है।

भौगोलिक स्थिति

पिथौरागढ़ समुद्र तल से 1,645 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिथौरागढ़ पूर्व में काली नदी के पार पड़ोसी देश नेपाल, पश्चिम में बागेश्वर और चमोली (गढ़वाल) तथा दक्षिण में अल्मोड़ा और चंपावत जनपदों तथा उत्तर में तिब्बत-चीन से घिरा उत्तराखंड का क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से तीसरा सबसे बड़ा जनपद तथा चार पर्वतों-चंडाक, ध्वज, थल केदार और कुंदर के मध्य लगभग 8 किमी लंबी और 15 किमी चौड़ी रमणीय सोर घाटी में 6.47 वर्ग किमी की परिधि में बसा सुंदर पर्वतीय शहर है। जनपद में नंदा देवी, त्रिशूल, राजरंभा, पंचाचूली व नंदाखाट आदि हिमालयी चोटियां, मिलम, रालम व नामिक ग्लेशियर तथा विशाल गोल्फ कोर्स, खूबसूरत पहाड़ व घास के मैदान-बुग्याल पिथौरागढ़ को मनोहारी बनाते हैं। यहां चूना पत्थर, तांबा व मैग्नेसाइट जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रचुर भंडार हैं, तथा साल, चीड़ और बांज आदि के घने हरे शंकुधारी वन पाए जाते हैं। पिथौरागढ़ के इर्द-गिर्द चार कोटें यानी किले मौजूद हैं, जो भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट के नाम से जाने जाते हैं।
माना जाता है कि कभी यहां सात सरोवर स्थित थे, जिनके सूखने से अब यह क्षेत्र पहाड़ी घाटी के रूप में बदल गया है। रई नाम की झील को पुर्नजीवित करने की कोशिश भी चल रही है। भारत-चीन युद्ध के दौर में 24 फरवरी 1960 को इसे अल्मोड़ा से काटकर पृथक जनपद के रूप में मान्यता मिली, जबकि 15 सितंबर 1997 को इसे अपनी एक तहसील चंपावत का एक नए जनपद के गठन के रूप में बिछोह झेलना पड़ा। सीमान्त जनपद होने के नाते एक सुदृढ़ दुर्ग की तरह हमेशा से देश-प्रदेश की रक्षा में लगे पिथौरागढ़ शहर को अपनी अप्रतिम प्राकृतिक सुंदरता के लिए सैलानियों का स्वर्ग कहा जाता है। यहां पहुंचने के लिए टनकपुर (151 किमी) तथा काठगोदाम (212 किमी) तक रेल सुविधा और वहां से आगे सड़क मार्ग की सभी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। निकटतम पंतनगर हवाई अड्डा 250 किमी दूर है, हालांकि मुख्यालय के ही नैनी-सैनी नाम के स्थान पर कुमाऊं का दूसरा हवाई अड्डा वर्षों से निर्माणाधीन है। कुमाऊं मंडल विकास निगम के सर्वसुविधा संपन्न पर्यटक आवास गृह सहित लोक निर्माण विभाग, जिला पंचायत सहित कई विभागों के गेस्ट हाउस तथा अनेक होटल भी उपलब्ध होते हैं। ऊन के वस्त्र, उच्च हिमालयी क्षेत्रों की जड़ी-बूटियां, दाल, मशाले व रिंगाल के बने हस्त निर्मित उत्पाद यहां की स्मृतियों को संजोने के लिए लिए जा सकते हैं।

दर्शनीय स्थल

पिथौरागढ़ के दर्शनीय स्थलों में अधिकांश प्राचीन मंदिर व किले पाल एवं चंद वंश के समय के हैं। इनमें प्रमुख मुख्यालय से 76 किमी की दूरी पर स्थित चंद राजाओं द्वारा आठवीं शताब्दी में निर्मित किया गया बालेश्वर मंदिर है। वहीं कैलाश मानसरोवर जाने वाले मार्ग पर 1936 में श्री 108 नारायण स्वामी द्वारा 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थापित प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण सुंदर आश्रम एक धार्मिक स्थान के साथ ही स्थानीय बच्चों के लिए शिक्षा का केंद्र भी है। यहां ध्यान, योग और समाधि लगाने की सुविधा भी उपलब्ध है। हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में विदेशी सैलानी भी यहां पहुंचते हैं। नगर से सात किमी दूर समुद्र तल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर पिकनिक स्पॉट के रूप में प्रसिद्ध चंडाक पहाड़ी से नगर एवं पूरी सोर घाटी की अद्भुत् सौन्दर्य युक्त प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। यहां मैग्नेसाइट की फैक्ट्री भी देखी जा सकती है। धारचूला जाने वाली सड़क पर 18 किमी दूर समुद्र तल से 2100 मीटर की ऊंचाई पर ध्वज नाम की चोटी पिथौरागढ़ के ‘ध्वज’ की तरह ही है। यहां स्थित भगवान शिव और मां जयन्ती के मंदिर से हिमालय की ऊंची चोटियों की मनमोहक सुषमा के नजारे भी लिये जा सकते हैं। नगर की एक अन्य ऊंची पहाड़ी थल केदार पर 16 किमी दूर स्थित शिव मंदिर महाशिवरात्रि के अवसर पर श्रद्धालुओं का बड़ा मेला लगता है। शहर से तीन किमी दूर गुफा में स्थित भगवान शिव का कपिलेश्वर महादेव मंदिर भी दर्शनीय है। कहते हैं कि कपिल ऋषि नें इस स्थान पर तप किया था। मुख्यालय से 68 किमी की दूरी पर गोरी और काली नाम की दो नदियों के संगम पर स्थित जौलजीबी भी एक प्रसिद्ध पर्यटन केन्द्र है, जहां मकर संक्रांति के अवसर पर विशाल मेला लगता है। थल में लगने वाला मेला भी विख्यात है। शिवपुरी नाम के स्थान पर मौजूद प्राकृतिक गुफा भी काफी प्रसिद्ध है। मुन्स्यारी की जोहार तथा धारचूला की दारमा व चौंदास तथा ऋषि व्यास के नाम से जानी जाने वाली व्यास घाटियों में भोटिया, शौका व ‘रं’ सभ्यताओं तथा अस्कोट क्षेत्र में रहने वाली वनराजि जनजातियों की संस्कृतियों का भी पिथौरागढ़ में अलग आकर्षण है। हिल जात्रा और छोलिया महोत्सवों का आयोजन यहां सैलानियों के लिए क्षेत्रीय लोक संस्कृति को जानने-समझने के बड़े अवसर होते हैं। नगर में हनुमानगढ़ी मंदिर, उल्का देवी मंदिर, राधा-कृष्ण मन्दिर, राय गुफा व भटकोट के अलावा अर्जुनेश्वर मंदिर, चंडाक, मोस्टमानू मंदिर, ध्वज मंदिर, कोटगाड़ी देवी मंदिर नदी गांव, चौकोड़ी, बिर्थी फॉल, मदकोट, डीडीहाट, झूलाघाट, कुटी गांव, आदि कैलाश के पास स्थित जौलिंगकांग, छियालेख तथा लिथलाकोट (तिलथिन) भी पिथौरागढ़ के अन्य दर्शनीय स्थल हैं। जनपद में आयोजित होने वाले छिपला केदार, बंबास्यांसै, गबला स्यांसै, ज्योलिंका कैलास और वेद व्यास मेलों का भी अपना अलग ऐतिहासिक महत्व है।

पाताल भुवनेश्वर

Patal Bhuvneshwarमुख्यालय से 77 किमी की दूरी पर गंगोलीहाट की माता कालिका के सुप्रसिद्ध हाट कालिका मंदिर एवं पास ही समुद्र तल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पाताल भुवनेश्वर नाम के स्थान पर प्राकृतिक गुफा में धरती से 120 मीटर अंदर गहराई के ‘पाताल’ में आस्था का अलौकिक संसार मौजूद है। 14वीं सदी के अभिलेखां युक्त गुफा के भीतर पाताल में देवलोक सरीखे रहस्य और रोमांच से भरे सात तलों वाली मानो कोई दूसरी ही दुनिया है, जिसकी महिमा स्कंद पुराण के मानस खंड में भी वर्णित है। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य भी यहां आये थेे। गुफा के तल पर पहुंचने के लिए एक संकरे रास्ते से 20 मीटर नीचे झुककर जाना पड़ता है। गुफा में भगवान भुवनेश्वर रूपी शिव के साथ ही विभिन्न देवी-देवताओं व कामधेनु आदि की मूर्तियां व आकृतियां तथा जल कुंड मौजूद हैं। गंगोलीहट से दो किमी दूर मनकेश्वर मंदिर भी देखने योग्य है।

चौकोड़ी

बागेश्वर से करीब 35 किमी की दूरी पर बेरीनाग के पास स्थित चौकोड़ी जन्नत की तरह सुंदर है। बीते दौर में यहां कुमाऊं के मालदार रहे देव सिंह बिष्ट के द्वारा करीब 300 एकड़ क्षेत्र में चाय के बागान लगाए गए थे, जिनकी महक आज भी कुछ हद तक यहां मौजूद है। कुमाऊं मंडल विकास निगम के खूबसूरत कॉटेज युक्त रेस्ट हाउस व मचान से मालदार के बंगले, चाय के बागानों और हिमालय की नंदा देवी सहित अन्य हिमाच्छादित चोटियों का नजारा धरती पर स्वर्ग की परिकल्पना को साकार करता है। यहां प्रकृति के विस्तृत फलक पर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं और पहाड़ों के सूर्यास्त एवं सूर्योदय के दौरान के नजारे बेहद मनमोहक होते हैं। यहां पास ही तीन किमी दूर कोटमन्या के निकट उत्तराखंड के राज्य पशु कस्तूरा मृग का संरक्षण केंद्र एवं उद्यान, बेरीनाग कस्बा, कोटगाड़ी, सानी उडियार, सनगाड, शिखर भनार के मूल नारायण मंदिर, गंगोलीहाट का हाट कालिका मंदिर एवं दसांईथल-गुप्तड़ी के पास स्थित पाताल भुवनेश्वर की प्राकृतिक गुफाएं भी दर्शनीय हैं।

गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन काल में महारानी विक्टोरिया ने वर्ष 1885 में भारत के तमाम हिस्सों में टी इस्टेट की स्थापना की थी। इसके तहत उत्तराखंड के देहरादून, कौसानी, चौकोड़ी, बेरीनाग, धरमघर (बागेश्वर व पिथौरागढ़ दोनों जिलों की सीमा), भीमताल समेत कई हिस्सों में टी इस्टेट विकसित किये गए थे। इन इलाकों में उत्पादित चाय ब्रिटेन समेत कई यूरोपीय देशों को भेजी जाती थी। भारत से ब्रिटिश राज के खात्मे से पहले टी इस्टेट को ब्रिटिश मूल की किसी महिला को सौंप दिया गया था। बाद में धीरे-धीरे तमाम लोगों ने टी इस्टेट में शेयर किया।

वन्य जीवन के आकर्षण

वन्य जीव प्रेमियों के लिए पिथौरागढ़ जिले में अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य स्थित है, जहां उच्च हिमालयी क्षेत्रों के भालू, कस्तूरी हिरन, घुरल, सांभर, गुलदार, कांकड़ जंगली बिल्ली, ऊदबिलाव, गोराल, सफेद भालू, हिमालयी तेंदुआ, कस्तूरी मृग, हिमालयी काला भालू और भरल सहित अनेक जंगली जानवरों के साथ ही हिमालयी बर्फ में पाये जाने वाले मुर्गे, तीतर और यूरोपियन तीतर जैसे कई अन्य पक्षियों और सरीसृपों का भी प्राकृतिक वास स्थल है। चौकोड़ी के करीब कोटमन्या कश्बे के पास उत्तराखंड के राज्य पशु कस्तूरा मृग (वैज्ञानिक नाम-मास्कस लूकोगस्टर) का प्रजनन एवं पुर्नवासन केंद्र भी स्थापित है।

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के भू विज्ञान विभाग (सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस) में रखे गए कुछ जीवाश्म

पाताल भुवनेश्वर पर एक विस्तृत आलेखः श्री राम के पूर्वजों ने खोजी थी यह गुफा

भारतवर्ष के पवित्रतम तीर्थों में एक पाताल भुवनेश्वर भगवान श्री भुवनेश्वर की महिमा एवं अलौकिक गाथा का साकार स्वरूप है। देवभूमि उत्तराखण्ड के गंगोलीहाट स्थित श्री महाकाली दरबार से लगभग 11 किमी. दूर भगवान भुवनेश्वर की यह गुफा वास्तव में अद्भुत, चमत्कारी एवं अलौकिक है। यह पवित्र गुफा जहां अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है, वहीं अनेकानेक रहस्यों से भरपूर है। इस गुफा को पाताल लोक का मार्ग भी कहा जाता है। सच्ची श्रद्वा व प्रेम से इसके दर्शन करने मात्र से ही हजारों हजार यज्ञों तथा अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है और विधिवत पूजन करने से अश्वमेघ यज्ञ से दस हजार गुना अधिक फल प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त पाताल भुवनेश्वर का स्मरण और स्पर्श करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि तैतीस कोटि देवता भगवन भुवनेश्वर की अखण्ड उपासना हेतु यहां निवास करते हैं तथा यक्ष, गंधर्व, ऋषि-मुनि, अपसराएं, दानव व नाग आदि सभी सतत पूजा में तत्पर रहते हैं तथा भगवान भुवनेश्वर की कृपा करते हैं।
स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में भगवान श्री वेदव्यास ने इस पवित्र स्थल की अलौकिक महिमा का बखान करते हुए कहा है- भुवनेश्वर का नामोच्चार करते ही मनुष्य सभी पापों के अपराध से मुक्त हो जाता है तथा अनजाने में ही अपने इक्कीस कुलों का उद्धार कर लेता है। इतना ही नहीं अपने तीन कुलों सहित शिवलोक को प्राप्त करता है। इसे सृष्टि की अद्भुत कृति बताते हुए श्री वेदव्यास आगे कहते हैं कि इस पवित्र गुफा की महिमा और रहस्य का वर्णन करने में ऋषि-मुनि तपस्वी तो क्या देवता भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं। ब्रह्माण्ड के समान ही यह गुफा भी अनन्त रहस्यों से सम्पूर्ण है।
पाताल भुवनेश्वर को बाल भुवनेश्वर भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने यहां बाल रूप में प्राणी मात्र के कल्याण हेतु सहस्त्रों वर्षों तक तप किया था। पाताल भुवनेश्वर गुफा से लगभग 200 मी. पहले भगवान वृद्ध भुवनेश्वर का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है जो अपने आप में हजारों हजार सदियों का इतिहास, धर्म एवं सनातन संस्कृति के साथ ही दिव्य कलाओं को समेटे हुए है। बाल भुवनेश्वर के दर्शन से पूर्व वद्ध भुवनेश्वर के दर्शन जरूरी माने जाते हैं।
गुफा के भीतर प्रवेश करते ही सर्वप्रथम नृसिंह भगवान की मूर्ति के दर्शन होते हैं। 82 सीढयां उतरकर जंजीरों के सहारे 90 फुट नीचे प्रथम तल में पहुंचा जाता है और एक अद्भुत किन्तु सुखद आभास होने लगता है। जहां-जहां दृष्टि जाती है वहीं कोई न कोई दिव्य मूर्ति, कलाकृति के दर्शन होने लगते हैं। ऐसा लगता है मानो सृष्टि नियंता भगवान ब्रह्मा जी ने किसी विशेष कल्याणकारी प्रयोजन हेतु यहां एक अलौकिक सृष्टि रची हुई है। अष्ट धातुनुमा विचित्र चट्टानों पर उकेरी गई आकर्षक एवं जीवन्त कलाकृतियां धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, शक्ति, भक्ति, आध्यात्म, संस्कृति, इतिहास तथा सनातन मर्यादा का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं।
कहा जाता है कि इस गुफा से पाताल से नीचे की ओर कुल सात तल यानि लोक स्थित है, परन्तु दर्शन-पूजन, यज्ञ-हवन इत्यादि के लिए प्रथम तल के बाद नीचे उतरने की अनुमति नहीं है। प्रथम दृष्टि में तो यह सुरक्षा कारण ही माना जाता है किन्तु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कठिन भक्ति, जप-तप, अनुष्ठान इत्यादि से भुवनेश्वर की विशेष कृपा प्राप्त सिद्ध-योगी को ही ऐसा सौभाग्य मिलता है। आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने गंगोलीहाट स्थित महाकाली दरबार के दर्शन के पश्चात जब यहां आकर भगवन भुवनेश के दर्शन किये तो स्वयं को धन्य कहा। इस गुफा के प्रथम तल में विचरण करते हुए जगद्गुरू ने अखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान देवी-देवताओं, भूमण्डल के सभी पवित्र तीर्थों, देवगणों तथा क्षेत्रपालों को एक साथ भुवनेश्वर के चरणों में ध्यानस्थ देखकर कहा कि इस महानतम तथा श्रेष्ठतम तीर्थ के दर्शन जन्म जन्मान्तरों के पुण्य कर्मों के बाद भी दुर्लभ हैं। शंकराचार्य को भगवान भुवनेश के दर्शन महाकाली की प्रेरणा तथा कृपा से ही संभव हो पाये थे। यहां श्री भुवनेश्वर तथा सभी देवी-देवताओं की विधिवत पूजा-अर्चना के पश्चात अंततः इस परम शक्ति को कीलित किया। साथ ही लोक कल्याण की दृष्टि से भगवान भुवनेश्वर की पूजा करने-कराने का दायित्व समीपवर्ती गांव के निवासियसों को सौंप गये।
गुफा के प्रथम तल में सर्वप्रथम शेषनाग के विशाल फन तथा उसके विषकुण्ड के दर्शन होते हैं। यहां शेषनाग क्षेत्रपाल के रूप में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि क्षेत्रपाल की अनुमति बिना भगवान भुवनेश के दर्शन के संभव नहीं हैं। स्कंद पुराण के मानस खण्ड में एक कथा प्रसंग के अनुसार राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए इसी स्थान पर एक अद्भुत यज्ञ किया था। कथा के अनुसार एक बार राजा परीक्षित ने प्रहसन भाव में श्रृंगी ऋषि के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया। इस पर ऋषि पुत्र उलंग को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने राजा को सांप के डंसने से मृत्यु का श्राप दे दिया। अपने बचाव के लिए तब राजा ने एक विचित्र यज्ञ का आयोजन कर डाला और सम्पूर्ण भूतल व पाताल में मौजूद सांपों-नागों का हवन कर दिया। परन्तु तक्षत नाग देवराज इन्द्र के आसन के नीचे छुप गया। इन्द्र का यज्ञ चल रहा था, परीक्षित को भी निमंत्रण था। वहां तक्षत नाग ने राजा परीक्षित को डस कर उनके प्राण हर लिये। घटना के सात दिन बाद कलयुग आरंभ हुआ, फिर परीक्षित की मृत्यु हुई। शेषनाग की रीड की हड्डियां यहीं से समूची पृथ्वी के भीतर फैली बतायी जाती हैं।
कुछ कदम आगे चलकर भगवान आदि गणेश की सिर विहीन मूर्ति दृष्टिगोचर होती है। मूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुडयों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल सुशोभित है। जहां से दिव्य जल की बूंदें टपकती हैं। मुख्य बूंद तो श्री गणेश के गले में पहुंचती है जबकि पंखुडयों से बाजू में टपकती है। पूर्व में यही जल अमृत हुआ करता था। थोडा आगे चलकर भगवान केदारनाथ भैंसे के पादपृष्ठ रूप में अवस्थित हैं। उनके बगल में
ही बद्रीनाथ जी विराजमान हैं। ठीक सामने बद्री पंचायत बैठी है जिसमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरुड महाराज शोभायमान हैं। बद्री पंचायत के ऊपरी तरफ बर्फानी बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बडी-बडी जटाएं फैली हुई हैं। यहां आगे बढते ही काल भैरव की जीभ के दर्शन होते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी मनुष्य काल भैरव के मुंह से गर्भ में प्रवेश कर पूंछ तक पहुंच जाये तो उसे अवश्यमेव मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसी के समीप त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश तथा महेश्वर सुशोभित हैं। उनके बगल में भगवान शंकर की झोली यानी भिक्षा पात्र तथा बाघम्बर छाला के दर्शन होते हैं।
यहां से चन्द कदम आगे बढते ही धर्म द्वार के पास पाताल चन्द्रिका विराजमान है जो पाताल देवी तथा पाताल भुवनेश्वरी के रूप में पूजित एवं प्रतिष्ठित है। मां भुवनेश्वरी के बगले में शेर का मुंह अलंकृत है। बाईं तरफ मुडकर देखने पर मोक्ष, धर्म, पाप तथा रणचार द्वार आते हैं। पौराणिक मान्यतानुसार रण द्वार द्वापर युग में बंद हो गया जबकि पाप द्वार त्रेता युग में। कलयुग के अन्तिम चरण में धर्म का द्वार बंद रहता है तथा मोक्ष का द्वार सतयुग में बन्द रहता है। पौराणिक कथाओं में इनका विस्तार से वर्णन आता है।
चार द्वारों के साथ ही द्वापर युग का प्रतिरूप पारिजात वृक्ष सुशोभित है। इसेदेखने से ऐसा जान पडता है मानो सम्पूर्ण भूमण्डल का भार इसने अपनी मजबूत शाखाओं में उठा रखा हो। जनश्रुति के मुताबिक वर्तमान में परिजात का एकमात्र वृक्ष बाराबंकी जनपद के रामनगर तालाब के किनारे देखा जा सकता है। भूण्डल में और कहीं भी यह पवित्र वृक्ष नहीं है। पौराणिक प्रसंग के अनुसार योगीराज भगवान श्रीकृष्ण स्वर्गलोक स्थित अमरावती से इस वृक्ष को लोक कल्याण के निमित्त पृथ्वी पर लाये थे। द्वापर काल में यही वृक्ष तब कल्पवृक्ष के नाम से जाना जाता था जबकि कलयुग में यह पारिजात वृक्ष के रूप में पूजित एवं अभिसेवित है। कहा जाता है कि इस वृक्ष पर प्रति दिन रात्रिकाल में श्वेत वर्ण का सिर्फ एक पुष्प खिलता है जो प्रातः अरुणोदय से पूर्व झड जाता है। जिस किसी को यह फूल मिल जाता है उसके सभी रोग-शोक, कष्ट-क्लेश मिट जाते हैं और सांसारिक मायाचक्र से धीरे-धीरे बाहर निकल मुक्ति मार्ग पर चलने का अधिकारी हो जाता है।
इस चमत्कारिक गुफा के स्वरूप तथा रहस्य को शब्दों में समेटना सहज नहीं है। फिर भी धर्म प्रेमी जिज्ञासु इसके भीतर अंकित तथा चित्रित देवाकृत्रियों के दर्शन कर समय-समय पर अपनी समझ एवं सामर्थ्य के अनुसार इसके अलौकिक रहस्य को लोक कल्याणार्थ शब्द देने का प्रयास करते आ रहे हैं। पाताल भुवनेश्वर गुफा से ही वृंदावन स्थित कदलीवन के लिए मार्ग जाता है। कदलीवन यानी केले के पेडों से पुष्पित, पल्लवित तथा सुशोभित एक ऐसाविलक्षण वन जो भगवान सत्यनारायण की माया से निर्मित बताया जाता है। भूतल पर हयी एकमात्र ऐसा स्थान है जो श्री हनुमान जी को सर्वाधिक प्रिय है। इसको लेकर पौराणिक कथाओं में अनेक रोचक व ज्ञानवद्धर्क प्रसंग मिलते हैं। एक कथा प्रसंग के अनुसार एक बार युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर भीम कदली वन में ब्रह्मकमल तोडने निकले। कहते हैं कि भीम को अपने बल पर गर्व होने लगा था। हनुमान जी चूंकि भीम से अत्यधिक स्नेह रखते थे, उन्हें लगा कि भीम का यही गर्व उसके पतन का कारण बन जायेगा। इसलिए अहंकार के दलदल से उनको बचाना होगा, इसी भाव को लेकर हनुमान जी भीम के रास्ते में पूंछ फैलाकर लेट गये। भीम ने हनुमान जी से पूंछ हटाने तथा रास्ता देने का अनुरोध किया तो हनुमान जी ने कहा पूंछ हटा लो और निकल जाओ। भीम पूंछ हटाने लगे किन्तु सम्पूर्ण शक्ति लगाने के बाद भी वे उसे हिला तक न सके। भीम का सारा गर्व चूर-चूर हो गया। हनुमान जी उठे, सस्नेह भीम को गले लगाकर बोले, ’’मैं सदैव तुम्हारा कल्याण चाहता हूं।‘‘
महान ऋषियों की तपस्थली भी इसी पवित्र गुफा में है। कन्दरायें बनी हुई हैं। भृंगु ऋषि, दुर्वाशा ऋषि, मार्केण्डेय ऋषि तथा विश्वकर्मा आदि ऋषियों ने यहीं तपस्या की थी। कामधेनु गाय का थन भी यहीं सुन्दर शिला खण्ड में बना हुआ है जहां से जल की बूदें एक निश्चित समयान्तराल में झरती रहती हैं। बताया जाता है कि पूर्व काल में यहांदूध की धारा सतत प्रवाहित रहती थी, जो ठीक नीचे ब्रह्मा जी के पांचवें सिर पर गिरती थी, अब वर्तमान में जल से ही इस पंचानन का अभिषेक होता है। पौराणिक कथानुसार पांच मुख वाले सृष्टि नियंता ब्रह्मा जी क पहला सिर बद्रीनाथ धाम में है, दूसरा सिर गया में, तीसरा पुष्कर राज में, चौथा सिर जम्मू-कश्मीर प्रांत के रघुनाथ मंदिर में है तथा पांचवां सिर यहां पाताल भुवनेश्वर में है। सम्पूर्ण भूमण्डल में ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर राजस्थान प्रांत के पुष्कर में स्थित है। लेकिन उनकी पूजा का विधान कहीं भी नहीं है।
ब्रह्मा जी के इन पांचों स्थानों पर पितरों का श्राद्ध कर्मध्तर्पण करना बहुत महत्व रखता है। पितृ पक्ष से संबंधित श्राद्ध कर्म बद्रीनाथ धाम में, मातृ पक्ष से सम्बन्धित श्राद्ध कर्म पवित्र गया धाम में, भातृ पक्ष वाले कर्म पुष्कर में तथा ननिहाल पक्ष वाले श्री रघुनाथ मंदिर धाम में करना श्रेष्ठकर माना जाता है। जबकि पाताल भुवनेश्वर में सभी पक्षों से संबंधित श्राद्ध कर्म तथा तर्पण आदि किये जाते हैं व चमत्कारिक फलदायी माने जाते हैं। यहां छूटे हुए श्राद्ध उठाये भी जाते हैं। अमावस्या के मौके पर तर्पण विशेष महत्व रखता है। यदि ब्राह्मण न हो तो पुजारी से भी उक्त कर्म करा लिये जाते हैं।
चमत्कारिक सप्त जल कुण्ड भी इसी गुफा में अवस्थित है। छह कुण्ड तो बंद यानी ढके हुए हैं
प्रस्तुति: राजेन्द्र पन्त ‘रमाकांत’

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