उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी-रत्नगर्भा अल्मोड़ा


Almora (2)चंद शासकों की राजधानी रहे अल्मोड़ा की मौजूदा पहचान निर्विवाद तौर पर उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में है। अपनी प्रसिद्ध बाल मिठाई, चॉकलेट व सिगौड़ी जैसी ही मिठास युक्त कुमाउनी रामलीला और कुमाऊं में बोली जाने वाली अनेक उपबोलियों के मानक व माध्य रूप-खसपर्जिया की यह धरती अपने लोगों की विद्वता के लिए भी विश्व विख्यात है। राजर्षि स्वामी विवेकानंद, विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर, नृत्य सम्राट उदय शंकर, सुप्रसिद्ध नृत्यांगना व अदाकारा जोहराबाई, घुमक्कड़ी के महापंडित राहुल सांकृत्यायन व गांधी वादी सरला बहन की प्रिय एवं सुप्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत से लेकर मनोहर श्याम जोशी, मृणाल पांडे, रमेश चंद्र साह व प्रसून जोशी जैसे कवि, लेखकों व साहित्यकारों तथा हर्ष देव जोशी, भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत, कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, पूर्व राज्यपाल भैरव दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी आदि की जन्म-कर्मभूमि अल्मोड़ा की धरती सही मायनों में रत्नगर्भा है। अपने किलों, मंदिरों, प्राकृतिक खूबसूरती, वर्ष भर रुमानी मौसम तथा तहजीब के लिए भी अल्मोड़ा की देश ही दुनिया में अलग पहचान है। बोली-भाषा के साथ ही कुमाऊं की मूल लोक संस्कृति, पहनावा, भोजन, रहन-सहन के साथ ही बदलते परिवेश के भी यहां वास्तविक स्वरूप में दर्शन होते हैं।

ऐतिहासिक व भौगोलिक व पर्यटन के संदर्भ

Almora 1865 from Ranidharaकहते हैं कि पूर्व में यह स्थान सातवीं सदी से कुमाऊं के राजा रहे कत्यूरी राजाओं के वंशज बैचलदेव के अधीन था, जिसने इसे कौसानी तक विस्तृत भूभाग को एक गुजराती ब्राह्मण श्री चंद तिवारी को दान दे दिया। 1568 में इसे राजधानी बनाकर चंद राजा कल्याण चंद ने इसे पहले ‘राजपुर’ नाम दिया, जिसका उल्लेख उस दौर के बहुत से प्राचीन ताम्रपत्रों में भी मिलता है। वर्ष 1797 ई. में गोरखों ने चंदों से छीन कर अपने नेपाल राज्य में मिला लिया, और प्रजा पर अत्यधिक जुल्म ढाए। 1815 में अंग्रेजों ने गोरखों को लड़ाई में हराकर तथा सिगौली की संधि के अनुसार कुमाऊं वासियों को गोरखों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाकर अपेक्षाकृत सुविधाजनक व्यवस्थाएं देते हुए राज किया। भारत-चीन युद्ध के दौरान 24 फरवरी 1960 को इसकी एक तहसील पिथौरागढ़ तथा 1997 में दूसरी तहसील बागेश्वर कटकर नए जिले बने।
पर्यटन के दृष्टिकोण से अल्मोड़ा, कुमाऊं-उत्तराखंड की पहाड़ियों में घोड़े की पीठ सरीखी पहाड़ी के दोनों ओर समुद्र सतह से 1646 मीटर यानी 5400 फीट की ऊंचाई पर 11.9 वर्ग किमी में फैला एक सुंदर पर्वतीय नगर है। नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर से 127 तथा नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम से 90 किमी दूर स्थित अल्मोड़ा के लाला, चौक, कचहरी व पल्टन आदि प्रमुख बाजारों में बिछे काले ‘पाथरों’ की पटालों से लेकर नंदादेवी मंदिर, जिला कलक्ट्रेट-मल्ला महल और हुक्का क्लब तक हर जगह इसकी पुरातन सांस्कृतिक पहचान नजर आती है, जो यहां के प्रसिद्ध नंदा देवी मेले से लेकर दशहरा उत्सव में अपनी तरह के अलग, जन सहभागिता से बनने वाले रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद सहित रावण परिवार के पुतलों में भी नजर आ जाती है। फिर चाहे नगर का राजधानी के रूप में बसासत की शुरुआत का स्थल, नगर के पूर्वी छोर पर स्थित कत्यूरी राजाआंे द्वारा नौवीं शताब्दी में स्थापित ‘खगमरा’ का किला हो, जिसके बारे में कथा प्रचलित है कि चंद राजा कल्याण चंद ने अपनी तत्कालीन राजधानी चंपावत से शिकार के लिए यहां एक खरगोश पर तीर चलाया था, लेकिन तीर लगने के बाद वह बाघ बन गया। जिसके बाद राज पुरोहितों से विचार-विमर्श कर राजा ने अपनी राजधानी यहां स्थापित कर दी। नगर के मध्य वर्तमान कलक्ट्रेट चंद राजाओं का मल्ला महल’ तथा वर्तमान जिला अस्पताल के स्थान पर ‘तल्ला महल’ रहा, जिसे बालो कल्याण चंद ने वर्ष 1563 में निर्मित किया था। उन्होंने इस नगर का शुरुआती नाम ‘राजपुर’ और ‘आलमनगर’ रखा था, जो बाद में यहां मिलने वाली एक घास-चल्मोड़ा से घुल-मिलकर अल्मोड़ा हो गया। 1790 में गोरखों ने आक्रमण कर कमजोर पड़े चंदों को हराकर इसे तथा कुमाऊं अंचल को अपने नेपाल राज्य में मिला दिया। नगर में एक तीसरा किला वर्तमान अल्मोड़ा छावनी में है, जिसके बारे में कहा जाता है कि 1815 में गोरखाओं को हराकर कुमाऊं में सत्तासीन होने पर अंग्रेजों ने सर्वप्रथम यहीं अपना ब्रितानी ध्वज फहराया था, और इसे तत्कालीन गवर्नर जनरल के नाम पर ‘फोर्ट मायरा’ नाम दिया गया था। उत्तराखंड की कुलदेवी कही जाने वाली माता नंदा देवी के इस नगर में नंदा देवी का भव्य मंदिर स्थित है,यहां भाद्रपद (सितम्बर-अक्टूबर) माह में नंदाष्टमी के अवसर पर नंदा देवी का भव्य मेला लगता है, जिसमें कुमाऊं के झोड़ा, चांचरी और छपेली आदि लोक नृत्यों के भी दर्शन होते हैं। दूर से देखने पर हिमालय की नंदादेवी और त्रिशूल पर्वत श्रृंखलाएं अल्मोड़ा के ऊपर अलौकिक तरीके से इसे अपने आंचल में समेटे सी नजर आती हैं। माता बानड़ी देवी, कसार देवी, शीतला देवी और स्याही देवी भी चारों ओर से तथा भुवन भास्कर सूर्य भगवान भी अपने कोणार्क के बाद देश में दूसरे मंदिर से मानो नगर पर अपनी कृपा नजर रखते हैं।

निकटवर्ती दर्शनीय स्थल

Almoraअल्मोड़ा नगर की समग्र प्राकृतिक व सांस्कृतिक खूबसूरती तथा आध्यात्मिकता इसके आसपास और जनपद भर में फैली हुई है। निकट ही पिथौरागढ़ रोड पर 13 किमी दूर चितई नाम के स्थान पर कुमाऊं के न्यायदेव ग्वेल (गोलू) का असंख्य घंटियों युक्त मंदिर में वर्ष भर श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है। करीब पांच किमी और आगे चलने पर लखु उडियार नाम की एक ऐसी जगह है, जहां प्रागैतिहासिक-पाषाण युग के मानव की हस्तनिर्मित चित्रकला-भित्ति चित्र आज भी देखे जा सकते हैं। और आगे जाने पर पनुवानौला, पांडवों के यहां से संबंधित होने की प्रतिध्वनि करता है तो पास ही स्थित मिरतोला आश्रम विदेशी लोगों को अपनी आध्यात्मिकता से यहीं रोके रखता है। कुमाऊं के शाहजहां कहे जाने वाले कत्यूर शासकों द्वारा निर्मित करीब आठ शताब्दी पूर्व बने मंदिर पूरे अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर से द्वाराहाट और बिन्सर से कटारमलकौसानी तक देखे जा सकते हैं। नगर से सात किमी दूर ईसा के जन्म से दो वर्ष पूर्व राजा रुद्रक द्वारा स्थापित बताया जाने वाला माता दुर्गा के स्वरूप कसार देवी के मंदिर का वर्णन स्कंद पुराण में भी मिलता है। विदेशी सैलानियों के इस पसंदीदा स्थान पर 1920 में यहां पहुंचे स्वामी विवेकानंद भी ध्यानमग्न रहे थे। नगर में त्रिपुर सुंदरी मंदिर, रघुनाथ मंदिर, महावीर मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, भैरवनाथ मंदिर, बद्रीनाथ मंदिर, रत्नेश्वर मंदिर और उलका देवी मंदिर भी प्रसिद्ध हैं। वहीं मुख्यालय से तीन किमी दूर एक छोर पर नारायण तिवाड़ी देवाल में मृग विहार तो दूसरी ओर ‘ब्राइट एंड कार्नर’ से इंगलैंड के ‘ब्राइट बीच’ की तरह के सूर्योदय और सूर्यास्त के अनुपम नजारे दिखाते हैं, कहते हैं इसी कारण इस स्थान को अपना यह नाम मिला है। नगर की मुख्य बाजार-लाला बाजार और माल रोड में सैर का अपना अलग ही आकर्षण है। यहां ‘विवेकानंद पुस्तकालय’ और ‘विवेकानंद मेमोरियल’ तथा 1938 में नृत्य सम्राट उदय शंकर द्वारा स्थापित नृत्य अकादमी भी दर्शनीय हैं। नगर में बस स्टेशन के पास स्थित ‘गोविन्द वल्लभ पंत राजकीय संग्रहालय’ में जनपद व मंडल की अनेक दर्शनीय कलाकृतियां व लोक चित्रकला शैली के अनेक चित्रों का अच्छा संग्रह प्रदर्शित किया गया है। नगर से पांच किमी दूर काली माता के मंदिर कालीमठ से बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों का मनमोहक नजारा दिखता है। यहां की आदर्श जलवायु पर्वतीय नगर होने के बावजूद स्वास्थ्यवर्धक है, तथा हर मौसम में पर्यटकों को मुफीद आ जाती है। हिमालय के विहंगम दृश्य देशी-विदेशी पर्यटकों को न केवल आकर्षित करते हैं, वरन कई पर्यटकों को यह रम जाने को भी लालायित कर देता है। पांच किमी दूर सिमतोला व करीब 10 किमी दूर मटेला पिकनिक स्थल के रूप में सैलानियों की पसंद रहते हैं। सिमतोला से हिमालय और नगर के रमणीक दृश्य सैलानियों को घंटों बांधकर मन मोह लेते है। कहते हैं कि गोरखा राज के समय राजपंडित ने मंत्र बल से यहां लोहे की शलाकाओं को भष्म कर दिया था, जिसे लौहभष्म कीे पहाड़ी के रुप में आज भी देखा जा सकता है। स्कंद पुराण के मानसखंड के अनुसार इसके पूर्व में शाल्मली यानी सुयाल और पश्चिम में कौशिकी यानी कोसी नदी स्थित हैं। एक कथा के अनुसार इसी क्षेत्र में कौशिका देवी ने शुंभ और निशुंभ नामक दानवों को मारा था। यहां से उत्त्तर दिशा की ओर हिमालय की चौखंबा, नीलकंठ, कामेट, नंदाघंुटी, त्रिशूल, नंदादेवी, एवी नेम्फा तथा पंचाचूली आदि चोटियों के सुंदर और स्पष्ट दर्शन होते हैं।

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