-वर्ष में एक एक्टर की दर्जन भर फिल्में आती थीं, अब आती हैं एक या दो
-छोटे परदे पर हर सीरियल में आते हैं नए एक्टर और 14-16 घंटे काम के बाद भी दूसरे सीरियल में नहीं मिलता उन्हें काम
नवीन जोशी, नैनीताल। एक जमाने के मेगा सीरियल महाभारत में संजय के पात्र के रूप में बेबाक, बिना लाग-लपेट आंखों-देखी बयां करने वाले नैनीताल निवासी सिने कलाकार ललित तिवारी निजी जिंदगी में भी संजय जैसे ही जाने जाते हैं। एक अभिनेता के लिए भी उनका मानना है कि वह समाज पर अपनी ‘गिद्ध दृष्टि” रखता है, और अपने ‘अंतर्मन” को विभिन्न चरित्रों में खोलकर रख देता है। इन दिनों अपने घर आए ललित ने शुक्रवार को ‘राष्ट्रीय सहारा” से सिनेमा व राजनीति सहित अनेक मुद्दों पर खुलकर बातचीत की, और वह इन दोनों क्षेत्रों से काफी भीतर तक व्यथित दिखे। उन्होंने कहा कि चीजें आगे बढ़नी चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। हर ओर गिरावट आ रही है, तथा पढ़ने, आगे बढ़ने के बजाय पैंसे की दौड़ नजर आ रही है।
भारतीय सिनेमा उद्योग की स्थितियों पर उनका कहना था कि बड़े परदे की हालत बेहद खस्ता है। बीते दौर में जहां एक कलाकार वर्ष में दर्जन भर फिल्में बनाता था, अब बड़े से बड़े कलाकारों की भी वर्ष में एक या अधिकतम दो फिल्में आ पाती हैं। जो फिल्में आती हैं, उनमें भी कहानी, गीत-संगीत जैसा कुछ नहीं होता। उनमें कुछ यहां-कुछ वहां से उठाकर ठूंसा गया होता है। अधिकांश स्टार कलाकार खुद ही प्रोड्यूसर हो गए हैं, और अपने लिए खुद फिल्में बना रहे हैं। इस गिरावट का कारण छोटा परदा यानी टीवी, इंटरनेट और फिल्मों के सैकड़ों रुपए में हो गए टिकट हैं। दूसरी ओर बकौल ललित छोटा परदा किसी कोण से सिनेमा नहीं है। वहां या तो फूहड़ कॉमेडी शो हैं, अथवा हर सीरियल में एक-दो प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ पूरी नई स्टार कास्ट ली जाती है। इन कलाकारों से सुबह सात बजे से रात के 10 और कई बार 12-1 बजे तक भी लगातार हफ्ते के सातों दिन काम लिया जाता है, बावजूद उन्हें अगला सीरियल नहीं मिलता, क्योंकि नए सीरियल में फिर नए कलाकार लिए जाते हैं। ऐसे में अनेक कलाकार आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। बताया कि वर्तमान 90 फीसद एनएसडी यानी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कलाकार यूं ही गुजारा कर रहे हैं। उन्होंने सिने कलाकार संघ यानी सिन्टा में कलाकारों का प्रवेश सीमित करने पर भी बल दिया। साथ ही तीन-चार माह में एक्टिंग का कोर्स सिखाने वाले संस्थानों पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें गैरकानूनी बताया तथा उन्हें बंद कर दिए जाने की जरूरत बताई, क्योंकि बकौल ललित एक्टिंग तीन-चार माह में सीखी जाने वाली चीज नहीं है। इसके लिए जिंदगी लगानी पड़ती है। बावजूद ललित कहते हैं सिनेमा और अभिनय उनकी जिंदगी है। इसके लिए ही वह जीते हैं। उनके अनुसार सिनेमा-‘ट्रू टु लाइफ” यानी जिंदगी के करीब और ‘क्रिएटिव आर्ट” यानी रचनात्मक कला है, लेकिन आज वह तिलस्मी हो गया है, जहां अपनी छवि भी रंगीन परंतु बेचैनी से भरी हुई दिखती है।
आंचलिक व भाषाई सिनेमा की प्रखर वकालत करते हुए ललित बताते हैं कि सत्यजीत रे को बंगाली सिनेमा के लिए पुरस्कार मिले। दक्षिण भारतीय सिनेमा भी बहुत आगे हैं। उत्तराखंड में भी अपने सिनेमा की अपार संभावनाएं हैं। इसके लिए स्थानीय लोगों को सही मंच, प्रोत्साहन देने की जरूरत है। लेकिन राज्य सरकारें अपने लोगों का उपयोग करने, उन्हें जिम्मेदारी देने की बजाय बड़े नामों या ऐसे लोगों, जिन्हें विषय का ज्ञान भी नहीं होता, उन्हें ‘ब्रांड एंबेसडर” बनाती या महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देती है, जो जिम्मेदारी लेने के बाद राज्य में झांकने नहीं आते हैं।
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